पथ के साथी

Friday, June 5, 2020

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रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-हरियाली के गीत
(30-05-1999 -आकाशवाणी-अम्बिकापुर-06-06-99, कलमकौशलजून-2001)

हरियाली के गीत
छाया; रोहित काम्बोज
मत काटो तुम ये पेड़
हैं ये लज्जावसन
इस माँ वसुन्धरा के ।
इस संहार के बाद
अशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछताओगे ;
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे ?
शीतल छाया
फिर कहाँ से पाओगे ?
कहाँ से पाओगे  फिर फल?
कहाँ से मिलेगा ?
सस्य श्यामला को
सींचने वाला जल ?
रेगिस्तानों में
 तब्दील हो जाएँगे खेत
बरसेंगे कहाँ से
उमड़-घुमड़कर बादल ?
थके हुए मुसाफ़िर
पाएँगे कहाँ से
श्रमहारी छाया ?
पेड़ों की हत्या करने से
हरियाली के दुश्मनों को
कब सुख मिल पाया ?
यदि चाहते हो
आसमान से कम बरसे आग
अधिक बरसें बादल ,
खेत न बनें मरुस्थल,
ढकना होगा वसुधा का तन
तभी कम होगी
गाँव नगर की तपन ।
उगाने होंगे अनगिन पेड़
बचाने होंगे
दिन- रात कटते हरे- भरे वन ।
तभी हर डाल फूलों से महकेगी
फलों से लदकर
नववधू की गर्दन की तरह
झुक जाएगी
नदियाँ खेतों को सींचेंगी
सोना बरसाएँगी
दाना चुगन की होड़ में
चिरैया चहकेगी
अम्बर में उड़कर
 हरियाली के गीत गाएगी
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2-आग
(20/10/1990- आकाशवाणी अम्बिकापुर-31-7-1998)

मत जलाओ
इस शाखा को
हम बैठगे भला कहाँ पर
जब लौटेंगे रोज़ सफ़र से
नीड़ कहाँ पर होगा अपना
झूलेगा फिर
सुबह-शाम को
कलरव कैसे
जले ठूँठ पर ।
          कैसे खेलेंगे
          आँख मिचौनी
          नन्हे बच्चे
अपत डार पर
         
छाया; रोहित काम्बोज
गीत नहीं
          गाएँगे जब हम
          कैसे होगी संझा -बाती
          और करेगा कौन आरती
धूप जलाकर,
बजाकर
जब
हम साधेंगे चुप्पी
कौन जाएगा
नदी नहाने
कौन पुकारेगा
सूरज को
भरे गले से
भीगे स्वर में
जागेंगी फिर
कहाँ ॠचाएँ
हर अन्तर में ।
मत जलाओ
इस शाखा को
क्योंकि,
क्या बचेगा
इसके यूँ जल जाने पर-
न नीड़
न आँख-मिचौली
न आरती
न यह सूरज
और न गीली ॠचाएँ।
-0-

3- परहेज़
प्रीति अग्रवाल

परहेज़ तो पहले भी
करते थे लोग
कभी जात के नाम पर
कभी प्रांत के नाम पर
कभी रूप रंग, तो कभी
धन-मान के नाम पर!

सोचती हूँ-
जो हुआ, अच्छा तो नहीं हुआ,
पर भेद-भाव मिटे
सब बराबर हो गए
परहेज़ सार्वजनिक
कानूनन हो गया!!
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