पथ के साथी

Thursday, November 11, 2021

1153-कविताएँ

 

1 -डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

1

ठूँठों के इन सघन वनों में बहुत विषमताएँ पलती हैं


चाहे जैसी सर्द हवा हों
,यहाँ गर्म होकर लती हैं।

 

सूरज की पहरेदारी में अँधियारा शासन करता है

और अराजकता पर आश्रित, उसकी सभी नीति चलती हैं।

 

वृक्ष यहाँ फल खा जाते हैं, सरिताएँ जल पी जाती हैं

युगों युगों से तृषित मृगों को केवल तृष्णाएँ लती हैं।

 

चाहे जैसे बीज बिखेरो इस जमीन पर अच्छे- अच्छे

किंतु यहाँ की जलवायु में, विष की ही बेलें फलती हैं।

 

कोयल के पर कटे हुए हैं, हंसों के मुँह पर ताले हैं

सिर्फ़ यहाँ पर चमगादड़ को, सारी सुविधाएँ मिलती हैं।

2

हर तरफ व्यवधान हैं, हर तरफ हैं शोर

आप ही बतलाइए अब हम चलें किस ओर।

इस शहर की बात ही मत पूछिए श्रीमान

एक अर्से से नहीं देखी किसी ने भोर।।

मनचले कुछ खेलते हैं, इक पुराना खेल

बन गए खुद ही सिपाही और खुद ही चोर।।

राम जाने हर गली में बह रही कैसी हवा,

वह फ़क़त इंसान को ही कर रही कमजोर।।

जिन दरख्तों पर हमें था नाज़ मुद्दत से,

बन गए वे भी शहर के साथ आदमखोर।

3

मत आइना ही देखिए, बाहर भी आइए

बदली हुई फ़िज़ा है, नए गीत गाइए।

क्रमबद्ध कतारों में लोग जा रहे कहाँ

कुछ पूछिए मत आप भी झण्डा उठाइए।

अंधी गली में कारवाँ, कब से भटक रहा

लेकर मशाल रोशनी उसको दिखाइए।

बैठे हुए जो आज तक तीतर लड़ा रहे,

चलकर के उनके हाथ के तोते उड़ाइए।

सारा शहर ही हो गया जंगल बबूल का

अब हरसिंगार भी कहीं इसमें लगाइए।

4

जाने कहाँ कहाँ के किस्से सुना रहे हैं टी वी वाले ,

बिना बात के बड़े बतंगड़ बना रहे हैं टी वी वाले ।

बचपन में आया करता था एक मदारी गलियों में ,

वैसे ही दिन रात तमाशे दिखा रहे हैं टी वी वाले ।

प्रगतिशील बनकरके जिनको कोसा करते हैं हरपल,

उनके विज्ञापन से टी वी चला रहे हैं टी वी वाले ।

पानी में ये आग लगा दें , नाव चला दें रेती में

बुझी आँच को फूँक-फूँककर जगा रहे हैं टी वी वाले ।

हम ही हैं नादान बहुत जो इनकी बातें सुनते  हैं ,

इसीलिए फिर काठ की हाण्डी चढ़ा रहे हैं टी वी वाले ।

-0-

2- मंजूषा मन

1-एक उम्र के बाद

 

एक उम्र के बाद


चेहरे पर उभर आया

महीन लकीरों का तानाबाना

बयान करता है

अपने अनुभव की कहानी

सिर पर चमकते

चाँदी के तार कहते हैं

"हम धूप में सफेद नहीं हुए।"

अब बदल गए 

जीवन के सारे समीकरण

अनुभव न समझा दिए

छल और प्रेम के अंतर,

कच्ची उम्र के दिन

याद तो बहुत आते हैं

पर अच्छा है 

इनका बीतना।

-०-

2-कोशिशें

 

वो जब भी कोशिश करती

खड़े होने की,

वे कहते -"बैठ जाओ"

 

वो जब चाहती नज़रें मिलाना

वे क्रोधित हो कहते -"नज़र नीची रखो"

 

अगर वो कोशिश करती

अपने मन की कहने की

वे ललकारते -"खबरदार"

 

वो दुबकी रही

वो नज़रें झुकाए रही

वो मुहँ छुपाए रही

वो सहमी रही

वो डरी रही

 

और धीरे- धीरे

ये डर

रगों में जगह बनाता गया

बहने लगा खून में...

पर अब भी...

वो करती है कोशिशें

खड़े होने की

नज़र उठाने की

खिलखिलाने की

अपनी बात कहने की

और उसने सुना है

कोशिशें कामयाब ज़रूर होतीं हैं

एक न एक दिन।

-0-