पथ के साथी

Monday, December 24, 2012

सुशीला श्योराण की दो कविताएँ



1-  खड्‍ग ले जीना होगा
सदियों से रिसी है
अंतस् में ये पीड़ा
स्‍त्री संपत्ति
पुरुष पति
हारा जुए में
हरा सभा में चीर
कभी अग्निपरीक्षा
कभी वनवास
कभी कर दिया सती
कभी घोटी भ्रूण में साँस

क्यों स्वीकारा
संपत्‍ति, जिन्स होना
उपभोग तो वांछित था
कह दे
लानत है
इस घृणित सोच पर
इनकार है
मुझे संपत्‍ति होना
तलाश अपना आसमाँ
खोज अपना अस्तित्‍व
अब पद्मिनी नहीं
लक्ष्मी बनना होगा
जौहर में आत्मदाह नहीं
खड्‍ग ले जीना होगा
-0-

2- विधाता से एक प्रश्‍न ?

हे सृजनहार
पूछती हूँ मैं
एक सवाल
क्यों लिख दी तूने
जन्म के साथ
मेरी हार ?

सौंदर्य के नाम पर
अता की दुर्बलता
सौंदर्य का पुजारी
कैसी बर्बरता !
इंसां के नाम पर
बनाए दरिंदे
पुरूष बधिक
हम परिंदे
नोचे-खसोटें
तन, रूह भी लूटें
आ देख
कैसे, कितना हम टूटे !
-0-