प्रमाणिका छन्द
ज्योत्स्ना प्रदीप
हिमाद्रि जो व्यथा सहे ।
किसे वही कथा कहे ।।
हरी भरी नहीं धरा ।
विहंग का हिया भरा ।।
न छाँव
है न ठौर है ।
न पेड़
है न बौर है ।।
न हास है न नीर है ।
बयार भी अधीर है ।।
चली नही उसाँस है ।
भला कहाँ विकास है।।
नदी
लुटी पिटी घटी ।
कहाँ -कहाँ नहीं बँटी ।।
तरंग गंग अंग की ।
रही नहीं भुजंग सी ।।
मिटी नदी वसुंधरा ।
इन्हें कभी नहीं तरा ।।
दया नहीं तजें कभी
न ज्ञान ही न
मर्म ही
सुधा भरें उसे
तरें ।
हरी भरी धरा करें ।।
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दिवाली के दोहे-
रेनू सिंह
खुशियों के इस पर्व पर,याद रखो यह बात।
मन मंदिर रोशन करो,जगमग होगी रात।।
पैसों से मत तोलना,त्यौहारों का मोल।
हँसी ख़ुशी सौगात दो,मीठे से दो बोल।।
धूम धड़ाका मच रहा,क्यूँ करते हो शोर।
रंगत सबकी धुल रही,देखो चारों ओर।।
धूल धुँए में दम घुटे, बहरे होते कान।
धरती मत छलनी करो,छोडो झूठी शान।।
उस घर का चूल्हा जले,रोटी जिनकी चाक।
बिजली से दीपक जले,उनपर डालो खाक।।
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