पथ के साथी

Monday, February 27, 2023

1295-भोर के अधर

 

समीक्षा

विविध भावों की सुमधुर अभिव्यक्ति: भोर के अधर

डॉ. सुरंगमा यादव

 

भोर के अधर जब खुलते हैं, तो नभ में उसके कोमल अधरों की  लाली छा जाती है। पक्षी चहचहाने लगते हैं। पक्षियों के कलरव के मिस प्रकाश के पदचाप सुनकर  अंधकार क्षितिज पटी पर स्थान ढूँढने लगता है, वहाँ भी ठौर न मिलने पर तिरोहित हो जाता है अथवा चाँद- सितारों की तरह  प्रकाश का आवरण ओढ़कर  प्रकाशमय हो जाता है। अधूरे स्वप्नों को पूरा करने के लिए जगतीतल पर जागरण- ध्वनि गूँजने लगती है। इसी प्रकार जब कविता ‘भोर के अधर’ के रूप में प्रकट होती है तो मन- भाव विहंग कूजने लगते हैं और विकीर्ण होने लगती हैं  कोरे पन्नों पर  शब्दों की किरणें जो अंतस में उजाला भर देती हैं।

 मैं बात कर रही हूँ  श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के सद्यःप्रकाशित काव्य संग्रह  ‘भोर के अधर’ की। इस संग्रह में कवि की फरवरी 1971 से अगस्त 2022 तक  की रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह में गीत, नवगीत तथा मुक्त छंद की 80 कविताएँ समाहित हैं। अलग- अलग मूड की इन कविताओं में सुख -दुख, हर्ष -विषाद,प्रेम- पीड़ा,आशा- निराशा,प्राकृतिक सौंदर्य,सामाजिक चेतना आदि का प्रभावशाली चित्रण देखने को मिलता है।

    कवि का प्रेमी मन प्रकृति के विभिन्न उपादानों में प्रिय दर्शन करता है । फूलों की सुगंध, चाँद का उज्ज्वल हास, वसंत का मादक यौवन, वर्षा की जलधारा में कवि अपने प्रिय का रूप निहारता है। वह अपने निस्सीम हृदयाकाश में  प्रिय  का स्नेह संचित कर लेना चाहता है-


 फूलों में थी महक तुम्हारी /और  चाँद में था उजियारा।

 मिला वसंत को यौवन तुमसे /पावस को उज्ज्वल जलधारा

 स्नेह फुहार से भीग न जाए जब तक तन- मन

 हृदय के निस्सीम गगन से मत जाना।

          संग्रह में अनेक  कविताएँ  प्रेम- भावना का सुन्दर निरूपण हैं। दूसरे द्वार जा नहीं सकता, दो आँसू, कुछ हो जाता है, तुम्हें पाने को, तुम्हारा आना, सूनी सेज, अनुबंध लिखो, इसी श्रेणी की कविताएँ हैं। दुनिया के रंग -ढंग देखकर कवि को निराशा होती है; इसीलिए वे कहीं दूर जाने की कामना करते हैं। जहाँ सुख -दुख, अभिमान, तर्क -वितर्क कुछ भी न हो। संसार में कोई किसी का सच्चा साथी नहीं है। मंजिल की चाह में चलते-चलते खुद अपने ही पाँव थकने लगते हैं। फिर भी कवि को किसी से कोई शिकायत नहीं है। वह बेगानों का साथ भी नहीं छोड़ना चाहते हैं-

 अपनेपन से दूर कहीं हम इक नीड़ बसा लें/बेगानों की उसमें भी फिर इक भीड़ लगा लें

 बिना सहारे अब तक मैंने दुःख सब झेला है /आकर देख चाँद का जीवन घोर अकेला है।

 नीड़ बसा लें, ले चल, पाँव थक गए, मोम -सा मन, मैं चलता रहा, मैं नहीं आशा किसी की आदि कविताओं में नैराश्य भाव प्रकट हुआ है, परंतु ये नैराश्य भाव क्षणिक है। कवि की दृष्टि पूर्णतया आशावादी है। कंटकाकीर्ण पथ कवि  को रोक नहीं पाते,जैसे पत्थरों से टकराकर भी नदी की धारा रुकती नहीं है, हजारों चरण भी अपने पदाघात  से पर्वत को झुका नहीं पाते और कोई ऐसी रात्रि नहीं होती जो भोर को आने से रोक सके-

 कंकड़- पत्थर खाकर बहता जल

 कब है रुक पाया / कुचल गए जो चरण हजारों,

 क्या पर्वत झुक पाया ! /मिल नहीं सका जिसे सवेरा, ऐसी रात नहीं।

     इसीलिए वे जीवन में सदैव बढ़ते रहने का आह्वान करते हैं, परिस्थितियाँ चाहे जो हों-

रास्ते में हैं अँधेरे / या कुछ उजले सवेरे।

 सोचना बिल्कुल नहीं /नदी तुम बहती चलो।

 आज राजनीति में विचारधारा और आदर्शों पर  स्वार्थ का  आधिपत्य है। जनता को लुभाने के लिये तरह- तरह के जुमले उछाले जाते हैं। इनकी भाषा कुछ और भाव कुछ और होता है। कवि ने इन अवसरवादियों की तुच्छ मानसिकता का सटीक चित्रण किया है। अवसरवादिता, चाँद पे थूके, पर्दा, जुग-जुग जियो समाजवाद, गिरगिट ऐसी ही रचनाएँ हैं-

 चाँद पे थूके,थूकके चाटे /जिसको चाटे, उसको काटे

श्वान नहीं ये, सर्प आज के! /मिले जो निगले, जहर ही उगले

हड़क पदों की, नस्ल गधों की/इन पर अपना देश टिका है

आज के तथाकथित आधुनिक लोग भौतिकता में ही सुख तलाशते हैं। बड़ा घर, बड़ा बैंक बैलेंस, लेन- देन पर टिके रिश्ते -नातों में अपनापन तलाशने वाले लोग एक झूठी खुशफहमी का शिकार हैं। सुविधाओं की भरमार होते हुए भी व्यक्ति कुंठाग्रस्त हो रहा है। ‘तलाश’ जैसी कविताएँ ऐसी ही मानसिकता की अभिव्यक्ति हैं।

 ‘भोर के अधर’ काव्य- संग्रह की कविताएँ विभिन्न विषय और भावों को अपने में समेटे हुए हैं। कहीं इन पर छायावाद की झलक है तो कहीं प्रगतिवाद की। कुछ कविताएँ निर्वेद की मन:स्थिति में  लिखी गहैं। प्रेम- कविताओं में गहनता और भावों की सघनता है। संग्रह की कविताएँ  पाठकों को निश्चय ही रससिक्त करेंगी।

भोर के अधर (काव्य- संग्रह)_ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, आईएसबी एन:978-93-94221-45-1,  मूल्य- ₹300,  पृष्ठ:120, प्रकाशन वर्ष- 2022, प्रकाशक - अयन प्रकाशन, जे- 19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059

Saturday, February 25, 2023

1294

 1-बीज

सुमन झा

 


कभी मत कहना

कभी मत सोचना कि

मैं  वो बीज हूँ

जो कभी अंकुरित हुआ ही नहीं।

बीज हो गर प्यार का

तो

जाँचें पहले वफ़ा की मिट्टी

हर गीली मिट्टी में वफ़ा नहीं होती

क्योंकि दिखावा, प्यार नहीं होता

फिर

 डाले अपनेपन का खाद उसमें और

समय और समझ के जल से सींचे

समझे ख्यालात को और बिसात को

वरना

 एकतरफा वफ़ाएँ 

 बहुत तकलीफ़ देती हैं

 एकतरफ से सेंककर

 तो

 रोटी भी नही बनती यारो।

 प्यार क्या ख़ाक होगा?

 और

 मिट्टी में पड़ा बीज कभी नष्ट नही होता

 फूटकर बिखर जाता है

 दबा पड़ा होता है, कहीं किसी कोने में

 फिर

 जब भी, जरा- सी भी,

हाँ सेभी  थोड़ी हमदर्दी मिली

वह पुनः पनपने लगता है,

तो

अब

और न कहना 

कभी मत सोचना कि

मैं वो बीज हूँ जो कभी अंकुरित हुआ ही नहीं।

-0-सुमन झा, गोरखपुर

-0-

2- मेरी गुड़िया

सुरभि डागर

 


मेरी गुड़िया बड़ी हो गई

गुड्डे -गुडिया के खेल

खेलती मेरी गुड़िया

बड़ी हो गई।

अब नहीं करती ज़िद

न‌ ही नखरे दिखाती है

पहले होती थी नाराज़

छोटी-छोटी बातों में

अब जख्म को भी 

छुपाती है।

चाट, गोलगप्पे को 

देख खिलाता था चेहरा 

अब खुशी से दाल रोटी 

खाती है।

बाजार से नहीं लौटती

थी खाली हाथ 

अब पुरानी साड़ी को भी 

अभी नई बताती है।

भूल‌कर वो खुद को

अपनी जिम्मेदारी निभाती है 

लहराती थी गेहूँ की बालियों- सी

अब आँखों से सब कह जाती है।

-0-

 

Friday, February 24, 2023

1293

 1-बदनसीबी

 कृष्णा वर्मा 

  

 जैसा वह है, ऐसा होना 

उसका कुसूर नहीं 

सीली कोठरी में जन्मा 

खुली नालियों वाली तंग 

बदबूदार गलियों में कंचे- गिल्ली डंडा खेलता 

डंडी से टायर को ठेलता

पता ही न चला कब

आसपास घटती घटनाओं को

अनजाने आत्मसात् कर लिया उसने 

गलियों के अँधेरे मोड़ों पर जुए के जमावड़े 

अभद्र भाषा में जुमलों संग ठहाके सुनता 

साल दर साल बढ़ता उसका वजूद 

कब उस सोहबत में घुल गया 

फिसलन भरी गलियों में जहाँ 

न सूर्य का उजाला था, न ही ज्ञान का 

उसकी भटकन भरी ज़िंदगी ऐसी फिसली कि जा गिरी 

दमघोटू गाँजा अफ़ीम और शराब की दुर्गंध में

वह वही पढ़ता और गुढ़ता रहा जो कानों को सुनाया 

दायरे की पातक हवाओं ने 

और यही अमल बन गया उसका काला मुकद्दर 

नशे असले बारूद और बंदूक 

अभिशाप बनकर लद गई उसके युवा कंधों पर  

इसे उपलब्धि जानकर उसने ठहाका लगाया 

और मनुष्यता रोने लगी ख़ून के आँसू। 

-0-

2-इन्तज़ार

प्रीति अग्रवाल

1.
तुम क्या गए
संग ले गए
मेरी मुस्कुराहटें...
छोड़ गए पीछे
पत्तों की सरसराहट
जो लुक -छुपके पूछती है
एक दूसरे से वही सवाल
जो अक्सर मैं
खुद से पूछा करती हूँ-
'तुम क्यों गए?'
2.
रोज़ की तरह
आज फिर दिन ढला
रोज़ की तरह
आज फिर उदासी ने
डालाया डेरा
काश!
एक बार तो कोई बताए
क्या कुसूर था मेरा?
3.
ढलता सूरज
दोहरा रहा
वही रोज़ का वायदा-
'कल आऊँगा।'
मैंने भी दोहरा दिया
वही रोज़ का वायदा-
'मैं इंतज़ार करूँगी।'
4.
इस नींद का भी
कोई ठिकाना नहीं,
जाने कहाँ रहती है
रात भर...
पूछती हूँ तो कहती है-
'ख्वाबों से तेरे नैना भरे हैं
आने नहीं देते,
मुझे करते परे हैं।'
5.
मुलाकातें इतनी छोटी
इंतज़ार इतने लंबे
क्यों होते हैं...
जब तक तुम आते हो
मैं थक जाती हूँ
कहने सुनने को
कितना होता है,
पर बस
बाहों में, सो जाती हूँ।
6.
तुमने संजीदगी से कहा-
'मेरा इंतज़ार न करना,
मुझे आने में वक्त लगेगा।'
मैंने हँसकर कहा-
'मेरे पास वक्त ही वक्त है,
मैं इंतज़ार करूँगी।'

-0-

 

Wednesday, February 22, 2023

1292

 

  1-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

घिरँधेरा घन,हरें पतवार कैसे छोड़ दूँ।

जीना अभी, करना बहुत संसार कैसे छोड़ दूँ।

-0-

2-परमजीत कौर 'रीत'

 

ग़ज़ल -1

अँधेरों की फ़ितरत का क्या कीजिए

चिराग़ों का  क़द ही बढ़ा लीजिए 

 

इसी में सुकूँ ज़िन्दगी का असल 

दुआ लीजिए और दुआ दीजिए

 

ये ही नफ़रतों का करेंगी इलाज़ 

जड़ी-बूटियाँ प्यार की बीजिए

 

समंदर सी रख ली है ग़र तिश्नगी़

न कम होगी, सौ-सौ नदी पीजिए 

 

खुदा ! ये दुआ है करूँ बंदगी

भले मुझको कम ज़िन्दगी दीजिए

 

ग़ज़ल -2

कहाँ कोई किसी से कम यहाँ था

ग़र इक तालाब तो दूजा कुआँ था 

 

गिरा पत्ता तो हावी हैं हवाएँ 

शज़र के साथ कब वह नातवाँ था

 

उन्हीं रिश्तों को परखा दूरियों ने 

वो जिनका नाम ही नज़दीकियाँ था 

 

मुझे थी पास होने की हिदायत

उन्हें हर बार लेना इम्तिहाँ था

 

नहीं था तर्क-ए-त'अल्लुक़ ये सच, पर

पलटकर 'रीत' देखा भी कहाँ था

 

ग़ज़ल -3

दिल से मिलें ग़र लोग, याराना बनता है

तार जुड़ें बेमेल, तमाशा बनता है

 

पेट काटकर तिनका-तिनका जोड़ें तब

सिर ढकने को एक ठिकाना बनता है 

 

 पंछी, पत्ते, फूल साथ छोड़ देते जब

बूढ़े पेड़ का मौन सहारा बनता है

 

वक्त के एक इशारे पर मंज़र बदलें

खुशी की आँखों में ग़म खारा बनता है

 

कुछ तो बात है हममें, सब यह कहते हैं

यूँ ही नहीं हर कोई दीवाना बनता है 

 

धुंध भले दीवार बने रस्ता रोके

फिर भी सूरज का तो आना, बनता है 

-परमजीत कौर 'रीत'

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