पथ के साथी

Wednesday, November 24, 2021

1158-हरभगवान चावला की कविताएँ

21 नवम्बर- 2021

आज पत्रकार रामचंद्र छत्रपति का शहीदी दिवस है। मैंने अपनी एक कविता पुस्तक 'जहाँ कोई सरहद न हो' उन्हें समर्पित की है। आज इसी पुस्तक की पहली कविता 'मैं कवि हूँ' प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस कविता की पृष्ठभूमि बताना ज़रूरी है। छत्रपति जी की शहादत 2002 में हुई। मेरे शहर के कवियों ने उन पर काफ़ी कविताएँ लिखीं। कुछ ऐसे भी थे, जो उनके हर शहादत दिवस पर आँसुओं में डूबी कविताएँ लिखते और उन्हें महान क्रांतिकारी बताते। शायद 2010 का साल था। हमें पता चला कि जिस धर्मगुरु पर छत्रपति की हत्या का आरोप है और मुकद्दमा चल रहा है (बाद में इसी केस में उसे सज़ा सुनाई गई), उसी के आश्रम में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है और उसमें मेरे शहर के कई कवि शामिल हो रहे हैं। इनमें वे कवि भी शामिल थे, जो छत्रपति पर हर साल कविता लिखा करते थे। ये न केवल शामिल थे, बल्कि उनकी ओर से कवियों को आमन्त्रित भी कर रहे थे। ज़ाहिर है कि गुस्सा आता। आया। इन लोगों से सीधी मुठभेड़ हुई। स्वर्गीय पूरन मुद्गल जी हम लोगों का नेतृत्व कर रहे थे। इन कवियों के तर्क बड़े बचकाना थे। उनके अनुसार साहित्य को सब चीज़ों से निर्लिप्त होना चाहिए। क़िस्सा कोताह यह कि उनके लिए यह आयोजन गुनाह बेलज़्ज़त साबित हुआ, क्योंकि ठीक उसी दिन कोई और कांड हो गया और कवि सम्मेलन हुआ ही नहीं। जिस दिन मुझे इस संभावित आयोजन की जानकारी मिली थी, स्वाभाविक रूप से ग़ुस्सा आया था। उसी ग़ुस्से की उपज है यह कविता :

 

मैं कवि हूँ

 

मैं कवि हूँ

और जैसी कि कहावत है

मैं वहाँ भी पहुँच जाता हूं

जहाँ रवि नहीं पहुँचता

मैं पहुँच जाता हूँ उस गहन गुफ़ा में भी

जहाँ पहुँच सकने का सपना

धूप भी नहीं देखती

 

मैं कवि हूँ

मुझमें कुलबुलाती हैं मानवीय संवेदनाएँ

इन्सानियत के लिए लड़ते हुए

जब मारा जाता है कोई सच्चा इन्सान

तो मैं ज़ार-ज़ार रोता हूँ

लिखता हूँ उसके लिए शोक-गीत

अगले ही दिन हत्यारे के दरबार में

हत्यारे को ईश्वर बताकर

ऊँची आवाज़ में गाता हूं प्रशस्ति-गान

और तरसता हूँ कि हत्यारे के मुख से

मेरे लिए निकले आह! वाह!

 

मेरे भीतर

किनारे तोड़कर बहती है

संवेदना की नदी

हर समय इस्तेमाल के लिए

तत्पर है इस नदी का जल

फिर इस्तेमाल करने वाला

कोई हत्यारा भी हो तो क्या

 

मैं कवि हूँ

बढ़कर हूँ रवि से

रवि अँधेरे का सिर्फ़ हरण करता है

मैं तो अँधेरा उगलता भी हूँ

पर कभी-कभी उस अँधेरे में

अचानक दुस्वप्न सा कौंध जाता है सूरज

मुझे तब कुछ दिखाई नहीं देता

सिर्फ़ सुनाई देती है एक आवाज़-

'धिक्कार है कि तुम कवि हो।'

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2-क्षणिकाएँ

हरभगवान चावला

1-चुप

 

चुप

निश्चल और निरंतर चुप

पथरा हुई चुप पर

तुम्हारा ख़याल

पानी की बूँद की मानिंद आता है

और टप से टपककर

पथरा चुप को

उदास कर जाता है।

2

तुम बिन

 

मैं चाक़ू से पहाड़ काटता रहा

अँजुरियों से समुद्र नापता रहा

हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान

कंधों पर ढोता रहा आसमान

यूँ बीते

ये दिन

तुम बिन।

-0-