रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
गुलामों की ज़िन्दगी जीने वाले
अपमान को चुपचाप पीने वाले
अवसर की पूँछ पकड़कर
बटोरकर सबके हिस्से का सम्मान
सजा रहे अपनी दुकान
माँग-माँगकर भीख
भर लेते अपनी झोली,
जिनकी नैतिकता को
लकवा मार गया
साफ़गोई स्वर्ग सिधार गई
बुद्धि को सुविधाएँ चर गईं
जेब नोटों से भर गई
आत्मा घुटकर मर गई;
जो अंधकार को बुलाते रहे
उजालों को कब्र में सुलाते रहे
सरेआम व्यवस्था को
पेड़ से लटकाकर
कोड़े लगाते रहे-
ऐसे लोग बुद्धिजीवी कहलाते रहे।
-0-रचनाकाल 20-2-82(किशोर प्रभात, अप्रैल 1984)