रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
‘ पूछेंगे’ हमसे
कहा, ‘मन के कई सवाल।’
2
द्वार -द्वार हम तो गए, बुझे दुखों की आग।
हाथ जले तन भी जला, लगे हमीं पर दाग।।
3
दर्द लिये जागे रहे
हम तो सारी रात।
उनकी चुप्पी ही रही
,कही न कोई बात।
4
करना है तो कीजिए,लाख बार धिक्कार।
इतना अपने हाथ में ,आएँगे हम द्वार।।
5
दुख अपने दे दो
हमें, माँगी इतनी भीख।
द्वार भोर तक बन्द
थे,हम क्या देते सीख।।
6
कुछ न किसी को दे
सके.ऐसी है तक़दीर।।
7
जाने कैसे खुभ गई,दिल में तिरछी फाँस।
प्राण जीभ पर आ गए,लगी है रुकने साँस।।
8
जब जागोगे भोर में ,खोलोगे तुम द्वार।
देहरी तक भीगी मिले, सिसकी, आँसू धार।।
9
सबके अपने काफिले,सबका अपना शोर।
निपट अकेले हम चले,अस्ताचल की ओर।
इतना दंड देना नहीं,मुझको अरे हुज़ूर।
छोड़ जगत को चल पडूँ
,होकर मैं मजबूर।।
11
बहुत हुए अपराध हैं,बहुत किए हैं पाप।
मुझको करना माफ तुम,मैं केवल अभिशाप।।
12
आया था मैं द्वार
पर,हर लूँ तेरी पीर।
आएगा अब ना कभी,द्वारे मूर्ख फ़क़ीर।
13
क्रोध लेश भर भी नहीं , ना मन में सन्ताप।
उसको कुछ कब चाहिए,जिसके केवल आप।
14
सबसे ऊपर तुम मिले,इस जग का उपहार।
15
बस इतनी -सी कामना,हर पल
रहना साथ।
दोष हमारे भूलकर,सदा थामना हाथ।।
-0- ( 24 मार्च-18, समय 1.55-5.10)