पथ के साथी

Saturday, June 28, 2025

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 धरती: स्मृति में धड़कता जीवन/ डॉ . पूनम चौधरी

 


 

धरती —

ना किसी रेखा से बँधी,

ना किसी शब्द में बसी —

वह करुणा है,

जो हर वज्राघात के बाद भी

शरण देने को तत्पर रहती है।

 

धरती —

कोई ज्यामितीय गोला नहीं,

बल्कि स्मृति का एक जीवंत आवास है,

एक नम वक्ष —

जिस पर जीवन बार-बार

सिर रखकर विश्रांति खोजता है।

 

धरती —

गणनाओं से परे

एक अधूरी प्रार्थना है,

जो हर बीज में

अपने उत्तर की प्रतीक्षा करती है।

 

वह शून्य में नहीं,

मनुष्यता की धड़कनों में बसती है —

जैसे कोई माँ,

जो हर साँझ दीप जलाकर

दरवाज़ा खुला छोड़ देती है।

 

उसकी चुप्पी,

अवज्ञा नहीं —

संयम का दीर्घ संकल्प है।

वह इसीलिए नहीं बोलती,

क्योंकि वह निभा रही है

बोलने से बड़ा धर्म —

धारण का, और बचाव का।

 

धरती —

जननी है,

और मृत्यु के बाद भी

विसर्जन करती है —

जैसे कोई निर्बंध गोद,

जो जीवन के अंतिम कंपन तक

थामे रहती है।

 

उसकी हरीतिमा

कोरी सजावट नहीं —

वह सहनशीलता से उपजा सौंदर्य है,

जो ताप और तुषार को

एक ही संवेदना से ओढ़ लेता है।

 

जब वृक्ष कटते हैं,

वह विरोध नहीं करती —

बल्कि मौन चुनती है,

 

जैसे किसी साध्वी की

दीर्घ मौन तपस्या,

जो हर आघात को

आत्मा में विलीन कर

शब्दों से परे चली गई हो।

 

धरती पर चलना —

एक मौन उत्तरदायित्व है,

जो हर बार पूछता है:

क्या तुम केवल लेने आए हो

या कुछ लौटाओगे भी?

 

धरती को छूना

जैसे किसी स्मृति-शिला को छूना है —

आभार...

अथवा अतिक्रमण।

मध्य कुछ नहीं।

 

धरती की छाती में

अब भी स्पंदन है,

पर वह आनंद का नहीं —

एक बोझिल उत्तरदायित्व का,

जो हर बार

उसे चुप रहकर निभाना पड़ता है।

 

हमने उसे मापा,

बाँटा,

काटा,

बेच दिया —

पर कभी

समझा नहीं।

 

धरती केवल भोग्या नहीं —

वह शताब्दियों की

मौन स्तुति है,

जो आँखों से नहीं,

अंतःकरण से पढ़ी जाती है।

 

जब भी निराशा घेर ले मन को,

तो चल पड़िए नंगे पाँव

हरी दूब पर —

या बैठ जाइए

किसी पुरातन वटवृक्ष की छाया में।

 

आप सुन पाएँगे —

धरती आज भी बोलती है,

शब्दों में नहीं,

संवेदना में।

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