पथ के साथी

Friday, May 1, 2020

981-बहुत याद आती है

(विदेश में रह रहे एक मज़दूर की मनोव्यथा का वर्णन)
 सुदर्शन रत्नाकर


जब भी मै , तपती दोपहरी में
चारकोल- सने पाँवों से
चलता हूँ या
ऊँचाइयों पर टँगी
टूटी कड़ियों को जोड़ता हूँ,
जहाँ नीचे झाँकने पर भी
रूह काँपती है।
गहरे कुओं में उतरता हूँ
ज़िंदगी का भार ढोने के लिए
ज़िंदगी से लड़ता हूँ।
तब मुझे मेरा बेटा याद आता है,
जो अपनी भोली बातों से मुझे चेताता है
अपना ध्यान रखना पापा,
आपकी कमी महसूसता हूँ मैं
बच्चे जब चलते हैं अपने पापा के साथ
पकड़कर उनका हाथ
मैं उन्हें चुपके से देखता हूँ,
वे उनके मज़बूत कंधों पर झूलते हैं
तब मुझे आपकी बहुत याद आती है।
तुम तो दूर हो पापा
बतियाता हूँ माँ के संग
कभी करता नहीं उन्हें तंग
पर पापा तुम जल्दी आना
मुझे बहुत याद आती है।

परिवार से दूर रहकर
क़ीमत जानता हूँ
परिवार का क्या महत्त्व है
मानता हूँ
जिसका बोझ अकेली पत्नी उठाती है
मेरे बिन हर कष्ट झेलती है
दंश तन्हाई का सहती है।
मेरे बूढ़े माँ-बाप को भी सम्भालती है
फिर भी खुश रहती है
माथे पर शिकन नहीं लाती है।
पर उसके मन में एक डर
समाया रहता है,
परिवार के लिए विदेश में रहते हो
अकेले ही कष्ट सहते हो
पत्र लिखती है, तो देती है हर बार ज्ञान
देखोजी, तुम रखना अपना ध्यान
तुम हो तो है दुनिया
तुम बिन सब टूट जाएँगे
ज़िंदगी के सब रंग,बदरंग हो जाएँगे।

चोट लगती है तो बूढ़ी माँ याद आती है
बचपन में ज़रा-सा गिर भी जाता था तो
माँ भागकर आँचल में छुपा लेती थी
माथे को चूमकर मुझे बहलाती थी

सच में पाकर माँ का स्पर्श
भूल जाता था पीड़ा का दंश।
अब गिरता हूँ तो स्वयं ही उठता हूँ

पत्नी का प्यार नहीं
माँ का दुलार नहीं।।

बापू जब ख़त भेजते हैं
आँसुओं से शब्द भीगते हैं
कंधे मेरे हो गए हैं शिथिल
बोझ उठा सकते नहीं
तेरे कंधों का सहारा है
चोटिल करना नहीं
इनके बिना गुज़ारा नहीं
मेरी दुआएँ तेरे साथ हैं
अब यही मेरे पास हैं।

सब की बहुत याद आती है
पिता के कंधे नहीं
बच्चों की मनुहार नहीं
अपनी धरती नहीं
अपना आसमान नहीं
जीना इतना आसान नहीं
पर मुझे जीना है उनके लिए
जिनके साथ बँधा है मेरा जीवन
दूर रहकर आशाओं के दीप जलाने हैं
उनकी मुस्कानें बनी रहें
अपने जीवन की साँसें बचानी है.
-0-

980-क्या यही है तुम्हारे श्रम का मूल्य !



डॉ. सुरंगमा यादव

हाँ कई बार देखा है मैंने तुम्हें
ऊँची-ऊँची इमारतें बनाते
कैसे चढ़ जाते हो तुम
पतली-पतली बल्लियों में
रस्सी बाँधकर इतने ऊँचे
देह को तपाकर
दीवारों पर करते हो तरी
लेकिन कभी-कभी
बिगड़ जाता है तुम्हारा संतुलन
टूटे पेड़ की तरह
 जमीन पर गिर पड़ते हो तुम

 तुम्हारी मौत का रूप बदल दिया गया
चन्द रुपयों और भारी शक्ति से
परिवार का मुँह बंद कर दिया गया
घर के नाम पर
अधूरी इमारतों में पाकर ठिकाना
बड़े खुश होते हो
पूरी होते ही वहाँ से
बाँध लेते हो बर्तन भाण्डों की गठरी
तुम अपनी ही बना इमारतों के लिए
तुच्छ और हेय हो जाते हो,

हाँ कई बार देखा है मैंने
उन हाथों को भी
जो मल -मल कर धोते हैं
साहबों के कीमती वस्त्र
जिन्हें पहनकर वे विराजते हैं
ऊँचे आसनों पर
तुम्हारे बना बिछौने पर
लेते हैं सुख की नींद;
लेकिन फिर भी तुम बने रहते
उनके लिए तुच्छ और हेय
 मैंने तो उसे भी देखा
जो पेट भरने के लिए
ईटों के चट्टे हाथों से सँभाले
सिर पर ढोती है
हाथों को ऊपर उठाने से
अधिक उन्नत हुआ उसका वक्ष
मालिक की लोलुप निगाहें
बड़ी धृष्टता से स्पर्श करती रहतीं है
मौका पाते ही वासना का गिद्ध
झपटने को तैयार
ये ऊँचे लोग रात के  अँधेरे में
स्त्री को  जाति-धर्म से परे 
मात्र देह समझते हैं
 तुम खामोश सह जाते हो
अपमान का एक और घूँ
क्या यही है तुम्हारे श्रम का मूल्य !
-0-