पथ के साथी

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Monday, May 12, 2025

1461

  1-तुम धरा थीं/  शशि पाधा


तुम धरा थीं

तेरे आँचल से बँधी थी

सारी प्रकृति

तुम आकाश थीं

तेरे आँगन में खेलते थे

सारे ग्रह-नक्षत्र

तुम सागर थीं

तुममें समाहित थी

सारी नदियाँ

तुम ब्रह्मांड थीं

तुझमें ही लीन थीं

हवाएँ–दिशाएँ

और ...

इस सब से

अनभिज्ञ-अस्पृह

तुम...केवल तुम थी

तुम ... माँ थीं

-0-

2-एक थी यशोधरा /  प्रीति अग्रवाल 

नीरव रात्रि
एकांत में निकले
खोजने सत्य
सिद्धार्थ महल से
न कोई विदा
यशोधरा से माँगी
न कोई संकेत
जिससे जान पाती
नन्हा राहुल
छोड़ मैया सहारे
यशोधरा के
मन में निरन्तर
यही टीसता
क्या मैं बनती बाधा
साथ न देती
क्या यही सोचकर
निकल पड़े
वे बिना कहे-सुने
क्यों मन मेरा
पहचान न पाए
यही मनाऊँ
पाएँ ज्ञान प्रकाश
मोक्ष का मार्ग
जनहित दिखाएं
हूँ बड़भागी
उनकी अर्धांगिनी
प्रेम पात्र बनी मैं!!
-o-

Tuesday, September 5, 2023

1368

 1-गुरु/ लिली मित्रा

 


गुरु बिना नहीं तर सके, तम सागर का छोर

कारे आखर जल उठे, उजियारा सब ओर।।

 

धर धीरज धन ज्ञान का, मिलती गुरु की छाँव

ज्यों पीपर के ठाँव में , बसे विहग के गाँव।।

 

ज्ञान मिले ना गुरु बिना, ज्ञान बिना ना ईश

सूने घट सा मन फिरे, बूँद-बूँद की टीस।

-0-

2-योग और श्वास / मंजु मिश्रा


 

सुनो....

अब मैंने भी शुरू कर दिया है योग करना 

रोज सुबह , ‘प्राणायामकरते हुए मैं...

 जब साँसों का योग वियोग करती हूँ,

तो छोड़ती जाती हूँ  वे सारी साँसें,

जो तुमसे अलग होने के बाद महसूस करती थी।

और खींचती जाती हूँ वातावरण से

 वह सारी शुद्ध वायु, जो तुम्हारे सानिध्य की थी ,

अब बनने लगी है मेरी प्राण-चेतना ।

 

भरस्रिकाके माध्यम से झटके से फेंकती जाती हूँ

अंतस् में बसी सारी शिकायतें।

भ्रामरीकरते हुए गुँजा देती हूँ रोम- रोम को

तुम्हारी सुखद स्मृतियों से।

कभी कभी कुंभकलगाकर बैठ जाती हूँ ,

रुक जाती हूँ कुछ पलों में

 कुछ यादों को स्थिर कर लेती हूँ उन पलों में।

अचानक हाथ उठ जाते हैं,

कहते हैं मानो तुम भी तो हो यहीं कहीं इसी भूमंडल में ।

दोनों हाथ जोड़कर झुक जाती हूँ तुमको प्रणामकरने ।

 और फिर शांत निश्चेष्ट- सी पड़ जाती हूँ ‘शवासनमें

 एक बार फिर से अपनी सारी चेतना को तुम्हारी यादों से झंकृत करके

 जीने की एक नई आस लिये ...

अपनी साँसों में आत्मविश्वास और प्राणों में

अपनी और तुम्हारी चेतना का योगकरके।

-0-manjumishra67@gmail.com

-0-

 3-गुरु / रश्मि लहर

  



बदल देते हैं जीवन-मूल्य,

विस्मृत कर देते हैं 

बड़ी से बड़ी भूल।

सुलझा देते हैं  मन का हर उलझा-भाव,

लुप्त हो जाते हैं जीवन के अभाव

जब मेरे पास होते हैं गुरु!

 

भले अदृश्य होते हैं

पर..

प्रतिपल विचारों को सहेजते हैं।

 

त्रुटियों का आकलन

वहम का निराकरण,

मृदुल स्वर से कर जाते हैं।

बनकर मार्गदर्शक..

साथ देते हैं गुरु!

 

निराशा की कल-कल बहने वाली 

नदी को,

हृदय का दम घोंटने वाली 

सुधि को,

छुपा लेते हैं अपने शिख पर,

आशा का अनमोल-अमृत 

बाँट देते हैं गुरु!

 

चुन-चुनकर अवसाद के कंकड़,

सुलभ-सहज कर देते हैं,

भावना का पथ।

 

विचारों के विस्थापित अंश हों या

टीस हो अपूर्ण रिश्तों की।

अनंत इच्छाओं का भार हो या..

असंतुष्टि हो अतृप्त-कामना की।

 

वेदना का प्रत्येक कण चुनकर,

जीवन के श्यामपट पर

संतुष्टि से सजी 

सकारात्मकता को,

छाप -देते हैं गुरु!

 

उनके साथ होने से मिलते हैं 

विस्मयकारी

अतुलनीय-अनुभूति के पल!

 

व्यस्तता के मध्य.. 

विचलित-मन की हर हलचल को,

वैचारिक -अवरोध के अपरिपक्व-संघर्ष को

संवेदित-ज्ञान से परे कर

स्नेह-आलंबन देकर

नव-प्रेरणा की अद्भुत आस होते हैं गुरु!

 

मेरी एकाकी-टूटन में 

शांति-दूत बनकर

सदैव मेरे पास होते हैं गुरु।

मेरे हर प्रश्न का जवाब होते हैं गुरु!

-0-

 4-सावन/ अनिता मंडा

 


बाहें खोल तुम जीवन का स्वागत करोगे

सावन चला आएगा

जीवन को सावन की नज़र से देखना

खुशियों की बारिश पाजेब खनका देगी

 

तुम्हारी छतरी को चूमने 

सावन बूँद- बूँद हो जाएगा

बाहें फैला तुम छतरी को उड़ा देना

बूँदों के आँचल को लपेटे हुए झूमना

धरती की कोख आनंद से भर उठेगी

तुम्हारी हँसी-सा इंद्रधनुष देखो तो

आसमान की मुस्कान है ये

 

तुम रोज़ हँसी के पंख जमा करते जाना

एक दिन उड़ना सीखना

ये सपनीले दिन-रात

सपनों में रख कर

कहीं भूल मत जाना

 

झींगुरों की आवाज़ का साज़ बनाकर

रचना मीठी धुनें

कर्कश शोर से भरी है ये दुनिया

 

कोलाहल के बीच सुकून से सोने के लिए

रंग-बिरंगी गोलियाँ नहीं

सितारों की रुपहली अशर्फियाँ चाहिए

 

कड़वी जड़ी-बूटियों का अर्क हैं नसीहतें

कोई दुष्प्रभाव न करेंगी

बहुत ज़रूरी है

नए के साथ पुराने की जुगलबंदी

आषाढ़ के साथ सावन कितना सहज रहता है।

-0-

5-प्रीति अग्रवाल

1-रोशनी

ऊँची इमारतों ने आज
फिर से मुँह चिढ़ाया है,
दिल की झोपड़ी में मैंने
एक दिया जलाया है।

इस दिए कि रोशनी में
दिख रहा ये साफ है,
रौंदके किसी को उठना
ज़ुल्म ये न माफ़ है।

जो दिख रहा है वो नहीं
सच्चाई के करीब है,
ईमान बेचकर जिया
असल में वो गरीब है।

जो पा रहे, जता रहे
जो खो रहे, छुपा रहे,
मोह, माया, साज़िशें
दलदल में धँसते जा रहे।

कब्र पर खड़ी इमारत
दरअसल है तार तार,
बदनसीबी पर मैं उसकी
खूब रोया ज़ार-ज़ार।

वो शर्मसार देखती
झुकी निगाह, लिये मलाल,
दिया मेरे मन का, रोशन
कर रहा है ये जहान!
-0-

Friday, February 24, 2023

1293

 1-बदनसीबी

 कृष्णा वर्मा 

  

 जैसा वह है, ऐसा होना 

उसका कुसूर नहीं 

सीली कोठरी में जन्मा 

खुली नालियों वाली तंग 

बदबूदार गलियों में कंचे- गिल्ली डंडा खेलता 

डंडी से टायर को ठेलता

पता ही न चला कब

आसपास घटती घटनाओं को

अनजाने आत्मसात् कर लिया उसने 

गलियों के अँधेरे मोड़ों पर जुए के जमावड़े 

अभद्र भाषा में जुमलों संग ठहाके सुनता 

साल दर साल बढ़ता उसका वजूद 

कब उस सोहबत में घुल गया 

फिसलन भरी गलियों में जहाँ 

न सूर्य का उजाला था, न ही ज्ञान का 

उसकी भटकन भरी ज़िंदगी ऐसी फिसली कि जा गिरी 

दमघोटू गाँजा अफ़ीम और शराब की दुर्गंध में

वह वही पढ़ता और गुढ़ता रहा जो कानों को सुनाया 

दायरे की पातक हवाओं ने 

और यही अमल बन गया उसका काला मुकद्दर 

नशे असले बारूद और बंदूक 

अभिशाप बनकर लद गई उसके युवा कंधों पर  

इसे उपलब्धि जानकर उसने ठहाका लगाया 

और मनुष्यता रोने लगी ख़ून के आँसू। 

-0-

2-इन्तज़ार

प्रीति अग्रवाल

1.
तुम क्या गए
संग ले गए
मेरी मुस्कुराहटें...
छोड़ गए पीछे
पत्तों की सरसराहट
जो लुक -छुपके पूछती है
एक दूसरे से वही सवाल
जो अक्सर मैं
खुद से पूछा करती हूँ-
'तुम क्यों गए?'
2.
रोज़ की तरह
आज फिर दिन ढला
रोज़ की तरह
आज फिर उदासी ने
डालाया डेरा
काश!
एक बार तो कोई बताए
क्या कुसूर था मेरा?
3.
ढलता सूरज
दोहरा रहा
वही रोज़ का वायदा-
'कल आऊँगा।'
मैंने भी दोहरा दिया
वही रोज़ का वायदा-
'मैं इंतज़ार करूँगी।'
4.
इस नींद का भी
कोई ठिकाना नहीं,
जाने कहाँ रहती है
रात भर...
पूछती हूँ तो कहती है-
'ख्वाबों से तेरे नैना भरे हैं
आने नहीं देते,
मुझे करते परे हैं।'
5.
मुलाकातें इतनी छोटी
इंतज़ार इतने लंबे
क्यों होते हैं...
जब तक तुम आते हो
मैं थक जाती हूँ
कहने सुनने को
कितना होता है,
पर बस
बाहों में, सो जाती हूँ।
6.
तुमने संजीदगी से कहा-
'मेरा इंतज़ार न करना,
मुझे आने में वक्त लगेगा।'
मैंने हँसकर कहा-
'मेरे पास वक्त ही वक्त है,
मैं इंतज़ार करूँगी।'

-0-

 

Saturday, September 3, 2022

1239

-प्रीति अग्रवाल

क्षणिकाएँ

1.

ज़र्रा हूँ

ख़ाक में मिलकर

खुश हूँ,

आफ़ताब बनाकर

मुझे, अकेला न करो।

2.

एक दूजे की मंज़िल

हम दोनों ही हैं,

सफर खूबसूरत

यूँ हीं नहीं...!

3.

मैं दर्द की पोटली

छुपाती फिरूँ,

कौन हो तुम

तुम, सब टोहते हो,

कौन हो तुम

तुम, गिरह खोलते हो।

4.

माना

हुस्न फूलों का

दिलकश है

अज़ीम है,

मुझे कुछ और

जीनों दो,

मुझे

दूब ही रहने दो...!

5.

ऐ हवा

इक सन्देशा

मेरा भी लेजा

उसी तरफ होकर

तू है गुज़रती,

कहना कि साँस चलती है

यूँ तो हूँ ज़िंदा,

मगर ज़िंदगी है

उसी ओर बसती।

6.

आँसू,

अपनी कहानी

लिखने पर हैं आमादा,

परेशान है मगर

कि

धुली जा रही है।

7.

बानगी इश्क की

जब इबादत

हो गयी,

तन, मन

घुलता रहा,

और धुआँ

मैं हो गई... !

8.

जी रही हूँ मैं

बेखौफ

बेधड़क,

जी रहे हो तुम

बेखौफ

बेधड़क,

उसी

महफूज़ पते पर-

एक दूसरे का दिल!

9.

नेह की

बरसात में

मैं घुलती चली गयी,

केवल

तुम ही तुम रहे

मैं जाने कहाँ गयी!

10.

सोचती हूँ

जिसे सह गई,

उसे कह देती

तो क्या होता...

जवाब-

नीला आकाश

उन्मुक्त उड़ान

क्षितिज के पार

नईं मंज़िलें

नया जहान!

-0-

2-कपिल कुमार

1

सिन्धु के तट

उपद्रष्टा रहे

युद्धों की विभीषिका के

रणभेरी की नादों से

भयभीत हुआ होगा

हृदय किस-किसका

युद्धों के परिणाम

दर्ज करती

तटों पर रुक-रूक कर

सिन्धु दशकों तक

आलेखों में

कभी

किसी ने नही पढ़ा

इनको पढ़े बिना

लग जाते है,

नए युद्ध की तैयारी में। 

2

युद्धों की पृष्ठभूमि

कौन लिखता है

हृदय पर 

पत्थर रखकर। 

3

उतारे हैं

प्रेम के

सभी प्रारूप

हृदय-पटल पर

ध्यान से सुनते

सिन्धु के खामोश तट

तुम्हारी बातें

इसके विपरीत भी। 

4

हे बुद्ध!! 

"अहिंसा के प्रवर्तक"

क्या तुमने कभी सोचा

यशोधरा ने लड़े

मन के विरुद्ध

कितने युद्ध

-0-