पथ के साथी

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Tuesday, June 11, 2019

908-ख़ौफ़ ज़रूरी है



भावना सक्सैना

प्रेम हो, दोस्ती हो,
भाईचारा रहे,
लेकिन इस जहाँ में
ख़ौफ़ भी ज़रूरी है।
आदमी को आता नहीं
शऊर बिना ख़ौफ़ के,
आदमी इंसान रहे 
इसलिए ख़ौफ़ ज़रूरी है।
कानून को चाहिए 
कि खाल खिंचवा ले
सरेआम, गुनहगारों की,
बालों से लटकाए
नाखून खिंचवा ले
सर कलम हों चौराहों पर
या मिले फाँसी वहीं
अंजाम हो कुछ भी मगर
ख़ौफ़ जरूरी है
ख़ौफ़ तो ज़रूरी है।
मोहब्बत में अक्सर
हो जाता है धोखा
सोचे सौ बार कोई
जहालत से पहले
न टूटे भरोसा 
ईमान रहे कायम
बस इसीलिए जहाँ मे
खौफ़ ज़रूरी है


Friday, July 17, 2015

सीमाएँ-


डॉ.कविता भट्ट

सीमाएँ
प्रगाढ़ होती निरंतर किसी वृद्धा के चेहरे की झुर्रियों -सी
असीम बलवती- वर्गों की, कागजों, देशों की
सीमाएँ  वर्गों की
तय करती अंधे-बहरे-गूँगे मापदंड,
अद्भुत किन्तु सत्य श्वेत-श्याम-रंग-बेरंग

मेहनत, विफलता और संघर्ष फिर भी,
इधर भूख और प्यास भी अपराध -से  हैं

आराम, सफलता और विजय के दावे ही
उधर दावतों का नित संवाद- सा है  
        सीमायें कागजों की
        तय करती पारंगतता सच्चे-झूठे प्रमाणों से
संचालक अनकही-अनसुनी-अनदेखी पीड़ा के

इधर गली कूंचे का मैकेनिक छोकरा
असफल ही कहलाता है मैला-कुचैला,

उधर अनाड़ी टाई पहने सफल ही कहलाता
कागज धारी तथाकथित इन्जिनीयर छैला
सीमाएँ- यें देशों की-
संघर्ष, युद्ध, शांति, संधियाँ, वार्ताएँ
संकुचन-प्रसारण, सफलताएँ-विफलताएँ

इन्सान तो क्या-पौधों, पशु-पक्षियों पर
लगवाती लेबल, बंधवाती ट्रांसमीटर

इन्सान है ;परन्तु हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी तय करती
नदी निरुत्तर, इधर या उधर का पानी तय करती

सीमाएँ-

प्रगाढ़ होती निरंतर किसी वृद्धा के चेहरे की झुर्रियों सी
असीम बलवती- वर्गों की, कागजों, देशों की
-0-
(दर्शन शास्त्र विभाग,हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय ,श्रीनगर गढ़वाल          ,उत्तराखंड)

Thursday, June 25, 2015

परवरिश



अनिता मण्डा

तुम बढ़ते रहे यों ही

जंगल के पेड़ों की तरह

हमें सँवारा गया

बगीचे की क्यारियों -सा

जहाँ हम उगे, पले, बढ़े

छोड़नी पड़ी जगह, जड़ें

बिना आह ,शिक़वे के

जो भी मिला बागबाँ

हमने वो अपना लिया

तुम बढ़े बिना कटे

तभी तो बेतरतीब से

नहीं सहा विस्थापन

थोड़े संवेदनहीन से

उभर आता है जंगलीपन

सभ्यता के मुखौटों के बीच

छुपाते हम अपना तन मन

आँखों की चौखटों के बीच

-0-
(चित्र  गूगल से साभार)

Wednesday, June 24, 2015

पहाड़ों का दर्द



1-पहाड़ों का दर्द
                सुनीता शर्मा
       
              
महत्वाकांक्षी मानव के अहंकार देख

     बदहाल पहाड़ अब रोता ही नहीं
बारिश भी उसका अंतर्मन भिगो नहीं पाती ,
औ उसके फेफड़ों में जमने लगी दर्द की झील ,
जो कालांतर में कहर बरपाएगी जरूर ,
चूँकि तुम्हारा जीवित होना ही उसकी मृत्यु है ,
                तो इन दरकते पहाड़ों की मृत संवेदनाओं ने ,
                वेदनाओं में जीना सीख लिया है शायद ,
                ममता के आँगन पहाड़ पर हे मानव !
                खनन में मगन तूने अपने अस्तित्व को
                अंतहीन खतरे में डाल ही दिया है,
                पूर्वजों के पूजे-सँवारे पहाड़ों की सम्पदा बेचकर
                तेरा जीवन मद की भेंट चढ़ ही जाएगा ,
                और कालांतर में बाढ़ का उग्र वेग
                बहा ले जाएगा तेरे वीभत्स अरमानो को ,
                तेरे अहंकार की बढ़ती मीनारों को ,
                तब हे मानव ! तेरा अस्तित्व !
                अँजुली भर मीठे पानी को तरसेगा ,
                क्योंकि अभी नदी तेरे लिए नाला भर है ,
                जिसमें तू बहाता अपने तन-मन के अवसादों को ,
                उन जहरीली नदियों में जीवन का आधार ढूँढ लेना तुम ,
                वृक्ष रहित बंजर पर्वत पर कैक्टस के उपवन उगा लेना तुम !
                                               -0-
                
2 - केदारनाथ आपदा
       सुनीता शर्मा 

समय कहाँ कब
किसी के लिए ठहरता है ,
थम जाती हैं
यहाँ केवल साँसें ,
प्राकृतिक हों
या कृत्रिम ,
रूह की देह को
त्यागने की परंपरा ,
फिर ब्रह्मलीन हो जा जाना ,
हाँ शायद वेदनाओं की ,
पाषाणी धरती न हो ,
केदार घाटी की  भाँति जो ,
पत्थरों का शहर बन गया ,
प्यासी रूहें भटक रही है ,
अपनों की तलाश में ,
जीवन की आस में ,
जैसे हर पत्थर के नीचे
लिख दी गई हो
दम तोड़ती तड़पती
अनगिनत मार्मिक दास्तान ,
जिनका इतिहास भूगोल ,
जानने के लिए फिर
असंख्य बेरोजगारों को
रोजगार मिल ही जागा ,
क्योंकि आपदा का असर ,
लोगों के जेहन में
साल छह माह ही रहता है ,
फिर समय चक्र में सबको सब ,
भुलाने की विवशता ही तो है ,
पुराने दर्द पर मरहम बोझ लगने लगता है ,
हर पल नवीन हादसों का इंतज़ार करती ,
मानवता वक़्त के साथ ढलती जाती हैं ,
वेदनाओं के नए सफर के लिए ।
-0-