पथ के साथी
Monday, May 26, 2008
Thursday, May 15, 2008
स्वस्थ चिन्तन
1-घर में प्रवेश करने से पहले अपने कपड़ों की धूल झाड़ लीजिए।सोने से पहले मन पर पड़ी नकारात्मक सोच की धूल साफ़ कर लीजिए । तन और मन स्वस्थ रहेगा ।
2-घर की खिड़कियाँ खुली रखिए ताकि ताज़ा हवा आ सके । दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, यह देखने के लिए खिड़कियों का इस्तेमाल न करें ।दीर्घायु प्राप्त करेंगे ।
2-घर की खिड़कियाँ खुली रखिए ताकि ताज़ा हवा आ सके । दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, यह देखने के लिए खिड़कियों का इस्तेमाल न करें ।दीर्घायु प्राप्त करेंगे ।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Monday, May 12, 2008
लघुकथाएँ
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-चक्रव्यूह
''मँझले को देखो न, कितना कमज़ोर हो गया है।'' सुबह पत्नी ने कहा।
''देख तो मैं भी रहा हूँ। पर करूँ भी तो क्या? कलकत्ता में रहे हैं। वहाँ गरम कपड़ों की ज्यादा ज़रूरत नहीं पड़ी। अधिक न भी हों तो तीनों बच्चों के लिए एक–एक फुल स्वेटर ज़रूरी है। मैं चप्पल पहनकर ही आफिस जा रहा हूँ। कम–से–कम दो सौ रुपए हाथ में हों, तब मँझले का इलाज फिर शुरू कराऊँ।''
''मैं पिछले आठ साल से देख रही हूँ कि आपके पास महीने के अन्तिम दिनों में दो रुपए भी नहीं बचते।'' पत्नी तुनक उठी।
कोई खांसी–जुकाम का इलाज तो कराना नहीं। लंग्स की खराबी है। साल–भर दवाई खिलाकर देख ली। रत्ती–भर फर्क नहीं पड़ा। संतुलित भोजन भी कहाँ मिल पाता है मंझले को।
मैंने देखा, पत्नी की आँखें भर आईं–''तीनों बेटों में मँझला ही तो सुन्दर भी लगता है।....'' उसने एक ओर मुँह घुमा लिया। मैं बिना खाए ही आफिस चला गया। मँझले का झुरता हुआ चेहरा दिन–भर मेरी आँखों में तैरता रहा। शाम को बोझिल कदमों से घर लौटा। पिताजी का पत्र आया था कि एक हज़ार रुपए भेज दूँ। अब उनको क्या उत्तर दूँ? महीने–भर की कमाई है आठ सौ रुपए। कहीं डाका डालूँ या चोरी करूँ? साल–भर में भी कभी एक हज़ार रुपए नहीं जुड़ पाए। वे बूढ़ी आँखें आए दिन पोस्टमैन की प्रतीक्षा करती होंगी कि मैं हज़ार न भेजता, तीन–चार सौ ही भेज देता।
एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि–पंजर सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टांगों से गिरता–पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है। और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।
2-धर्म निरपेक्ष
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।
पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और फिर सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
3-क्रौंच–वध
कहीं से एक बाण तेजी से आया और आकाश में उड़ते क्रौंच पक्षी को जा लगा।
मँडराता हुआ क्रौंच धीरे–धीरे ज़मीन पर उतर आया और पीड़ा से छटपटाकर मूर्च्छित हो गया।
वृक्ष के नीचे बैठा निषाद यह दृश्य देख रहा था। उसने दौड़कर क्रौंच को गोद में उठा लिया।
पास में बहती तमसा के शीतल जल से उसका घाव धोया और अपनी पगड़ी का छोर फाड़कर पट्टी बांध दी। क्रौंच की चेतना लौट आई। पीड़ा अचानक गायब हो गई।
निषाद को पास में देखकर क्रौंच भौचक्का रह गया–
''क्या तुमने ही मुझे बचाया है?''
''हाँ,मैंने ही तुम्हें बचाया है।'' निषाद बोला।
''लेकिन यह कृपा किसलिए.....?''
''मैं नहीं चाहता कि कोई बाल्मीकि तुम्हें छटपटाता हुआ देखकर महाकाव्य रचे। मैं तुम्हें मरने नहीं दूँगा।'' निषाद ने दृढ़तापूर्वक कहा
4-मुखौटा
नेताजी को चुनाव लड़ना था। जनता पर उनका अच्छा प्रभाव न था। इसके लिए वे मुखौटा बेचने वाले की दूकान में गए। दूकानदार ने भालू, शेर, भेडिए,साधू–संन्यासी के मुखौटे उसके चेहरे पर लगाकर देखे। कोई भी मुखौटा फिट नहीं बैठा। दूकानदार और नेताजी दोनों ही परेशान।
दूकानदार को एकाएक ख्याल आया। भीतर की अँधेरी कोठरी में एक मुखौटा बरसों से उपेक्षित पड़ा था। वह मुखौटा नेताजी के चेहरे पर एकदम फिट आ गया। उसे लगाकर वे सीधे चुनाव–क्षेत्र में चले गए।
परिणाम घोषित हुआ। नेताजी भारी बहुमत से जीत गए। उन्होंने मुखौटा उतारकर देखा। वे स्वयं भी चौंक उठे–वह इलाके के प्रसिद्ध डाकू का मुखौटा था।
5-चक्र
मोना को सुबह ही सुबह खेलते देखकर महेश ने पत्नी को कनखियों से इशारा किया–''देखो, मोना की रात भी कितना समझाया था कि सोने का वक्त हो गया है। खेल बंद करके होमवर्क पूरा कर लो। अब फिर सुबह ही सुबह......'' वह क्रौंध से होंठ चबाता हुआ दूसरे कमरे में चला गया। सहमा हुआ मोना नल पर जाकर ब्रश करने लगा।
आठ बज गए। स्कूल जाने में सिर्फ़ आधा घंटा है। महेश की नज़रें मोना को तलाश रही थीं। उड़ती–सी नज़र बरामदे की ओर चली गई। पत्नी रसोईघर में व्यस्त थी। मोना दीवार के किनारे इमली के बीज फैलाकर निशाना साध रहा था। महेश इस बार संयम खो बैठा। उसने लपककर मोना को पकड़ लिया। एक के बाद एक थप्पड़ पड़ने लगे। उस पर जैसे पागलपन सवार हो गया था। उसने मोना को लाकर पलंग पर पटक दिया। एक चीख के साथ वह उछलकर खड़ा हो गया । पत्नी रसोईघर से दौड़कर आई। उसने पत्नी को एक तरफ धकेल दिया।
''मत मारो पापा.....'' उसने हाथ जोड़ दिए। डर के मारे पेशाब निकल जाने से उसकी पैण्ट गीली हो गई। सुबकियों के साथ उसका पूरा शरीर पत्ते की तरह काँप रहा था। महेश चीखा–''तुमको रात भी समझाया फिर भी तुम बात क्यों नहीं मानते?'' और थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया। पत्नी ने हाथ पकड़ लिया–''अब जाने भी दो या जान ही लोगे इसकी।''
दफ्तर पहुचने पर उसका मन और व्याकुल हो गया। जब काम में मन नहीं लगा तो वह छु्ट्टी लेकर घर लौट आया।
मोना को बुखार चढ़ गया था। पत्नी सिरहाने बैठी थी। मोना ने धीरे से आँखें खोलीं। ''पापा''–कहकर फिर आँखें मूँद लीं।
''मैंने आज अपने बेटे को बहुत पीटा है न?'' महेश ने मोना के बालों में उँगलियाँ चलाते हुए कहा।
''मैंने भी तो आपकी बात नहीं मानी?'' मोना ने अपना हाथ पिता की गोद में रख दिया।
दोनों की आँखें भीग चुकी थीं।
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