पथ के साथी

Wednesday, September 2, 2020

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छह कविताएँ


1-मनोज मिश्रा
क्षणिकाएँ
1.
मैं बैठ प्रतीक्षा करता

शब्द बहेंगे मेरी लेखनी से
,

भाव उमड़क बह गए
पर पन्ना पड़ा है रीता रे.....!
2.
न कल की परछाई
न कल के स्वप्न
जी लूँ, जीभर
आज हो मगन!
3-कविता-पल पल

पल पल सँजोक बनाया,
सज-सजकर गुदगुदाया।
पल-पल में टूटी माया,
खो खो कर तो था पाया।
चुन-चुन बिछड़ी साँसों ने,
कुछ-कुछ ये समझाया।
रखा जो वो जड़ था,
जीवन यूँ क्यों गँवाया ।
चलूँ बचे पल लेकर,
साधूँ , जो नष्ट कर आया!
-0-
मनोज मिश्रा
परिचय : बंगाल में बचपन, दिल्ली में युवावस्था और बाक़ी समय अमेरिका में बीता । गणित में स्नातक, संगणक शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन । सूचना प्रौद्योगिकी निर्देशक पद पर कार्यरत । कविता पाठ करने का बालपन से शौक़ रहा है । यदा -कदा लिखने का भी प्रयास करता रहा । अब बंधुगण का प्रोत्साहन मिला है, तो विचारों को लयबद्ध करने का प्रयास है।
पता  - 12207 Meadowstream Ct, Herndon. VA.
 ईमेल: midasmishra@gmail.com
-0-
2-प्रीति अग्रवाल

1- फिर वही

वही खिड़की

वही कुर्सी

वही इलायची वाली चाय

वही पसन्दीदा कप
वही थकन
वही सवाल
और वही जवाब !
उफ्फ!
ये बेहिसाब ज़िम्मेदारियाँ!
लाइन लगाकर
हमेशा तैनात,
जाने कब खत्म होंगी...
जाने कब सब बड़े होंगे...
जाने कब मुझे छुट्टी मिलेगी...??

और फिर,
वही उदास ख्याल-
धीरे धीरे
सब अपने अपने
पथ पर चल देंगे...
मैं अकेली हो जाऊँगी...
जीवन सन्ध्या के
गहराते अँधेरे में
क्या करूँगी
अपनी क्षीण होती
शक्ति से....
सारी सीमाएँ
सिमट जाएँगी.......!

और एक बार फिर,
चाय की अंतिम चुस्की का
वही जादू-भरा
जोशीला सुझाव-
मैं क्या करुँगी?
खूब आराम करूँगी !!
कोई काम न होगा
कोई बंदिश न होगी
कोई भागम-भागी न होगी...
बस मैं,
और मेरी कलम...,
काग़ज़, कैनवस
और रंग...!
हाँ, और वही खिड़की
वही आराम कुर्सी
इलायची वाली चाय
और पसन्दीदा कप भी...,
बहुत मज़ा आएगा
है न!!

2- मुखौटा
ख़याल रखो इनका,
ये जो हर पल
हँसते हैं
मुस्कुराते हैं...,
जाने किस ग़म में
तिल- तिल,
घुले जाते हैं....।
कह दो इनसे,
यूँ ज़रूरी नहीं है
हर पल खुश दिखना,
अच्छा होता है
सेहत के लिए
रो लेना भी कभी कभार !!
-0-
3- कटघरा

जाने क्यों और कैसे
रोज़ ही अपने को
कटघरे में खड़ा पाती,

वही वकील

वही जज
और वही
बेतुके सवाल होते,
मेरे पास
न कोई सबूत
और न गवाह होते,
कुछ देर छटपटाकर
चुप हो जाती,
मेरी चुप्पी
मुझे गुनहगार ठहराती,
वकील और जज
दोनों हाथ मिलाते,
मैं थककर लौट आती
अपने घर को समेटने में
फिर से लग जाती...!!

सिलसिला चलता रहा...
फिर एक दिन
न जाने क्या हुआ
बहुत थक गई थी शायद....
ज़िन्दगी से नहीं
उसकी कचहरी से,
सोचा-
यदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो...!
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया,
हर काम
डंके की चोट पर

आरंभ कर दिया
,
मैं सही करती रही
और वही करती रही
जो मन भाया,
और वक्त.…..
वह मेरी गवाही
देता चला गया !!
-0-