कमला निखुर्पा
कविता कहाँ हो तुम ?
पता है तुम्हे ?
कितनी अकेली हो गई हूँ मैं तुम्हारे बगैर .
आओ ना ...
कलम कब से तुम्हारे इन्जार में सूख रही है और मैं भी ...
ये नीरस दिनचर्या और ये मन पर मनों बोझ तनाव का ..
हर रोज गहरे अँधेरे कुंए में धकेलते जाते हैं ..
आओ ..उदासी के गह्वर से निकाल , कल्पना
के गगन की सैर कराओ ना ...
ये शहर, ये
कोलाहल, धुआँ उगलती ये चिमनियाँ
हर रोज दम घोट रही हैं
आओ .. भावों की बयार बहा जीवन शीतल कर जाओ ना .....
देखो वो डायरी , धूल से सनी, सोई पड़ी है कब से
शब्दों के सितारों से सजा उसे जगाओ ना ..
आओ छंदों की पायल पहन
गुंजा दो मन का सूना आँगन
कि कलम भी नाचे
भावना भी बहे
कल्पना के पंख सैर कराएँ त्रिभुवन की
कविता अब आ भी जाओ
मैं जोह रही हूँ बाट तुम्हारी ।
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