पथ के साथी
Monday, September 23, 2019
Monday, September 16, 2019
931
भावना सक्सैना
सपने बीजते हैं...
सड़क किनारे
उग आई बस्तियों में भी
होते हैं वही सुख-दु:ख
सपने, आस-उम्मीदें।
![]() |
चित्र; प्रीति अग्रवाल, |
आसमाँ को काटती
ईंटों पर धरी टीन
कतर नहीं पाती
पंख सपनों के।
टीन- तले पसरी भूमि
होती नहीं है परती।
उसमें गिरे स्वेद-कण
बीजते, पनप जाते हैं
बाँस के कोनों पर बँधे
तिरपाल की टप-टप से
नम भूमि में जन्म लेती है
असीम संभावनाएँ
झिंगोले में पड़े बूढ़े पंजर
होते हैं सपनों की कब्रगाह
आँखें मगर उलीच पाती नहीं
भविष्य की संभावनाएँ
अनकही दास्ताँ दर्द की
देती है दंश बार-बार
उफनते हैं सीने में
अधूरे ख्वाबों के खारे समंदर
मेहनतकश बाजुएँ
झोंक देती हैं जान,
हार जाती हैं अक्सर
करते बुर्जुआ बुर्जों का निर्माण।
फिर भी सपने बीजते,
पनपते रहते हैं
जीते रहने के लिए
हौसला मन को दिए रहते हैं।
-0-
Saturday, September 14, 2019
930
1-मातृभाषा
सत्या शर्मा 'कीर्ति'
अकसर अपनी
अकसर अपनी
आंतरिक तृप्ति के पलों में
बो देती हूँ अपनी भावनाओं के कोमल बीज
जहाँ निकलते हैं शब्दों के नाज़ुक कोमल-से फूल
बो देती हूँ अपनी भावनाओं के कोमल बीज
जहाँ निकलते हैं शब्दों के नाज़ुक कोमल-से फूल
उन्हें हौले से तोड़कर
सजाती हूँ पन्नो के ओजस्वी
कंधों को
वर्णों के रेशमी धागों को
बाँधती हूँ कलम की सशक्त कलाई पर
वर्णों के रेशमी धागों को
बाँधती हूँ कलम की सशक्त कलाई पर
और छंदों की नावों
संग घूम आती हूँ
गीतिका की लहरों
पर
जहाँ मात्राओं
की अनगिनत उर्मियाँ
देती है जन्म
किसी भावुक सी कविता को।
तब अनायास ही खिलखिला
पड़ते हैं हजारों अक्षर
दीपावली के जगमगाते जीवंत दियों-जैसे
तब मेरे मन के पायदान से
उतर आते हैं कदम-दर-कदम
किसी देव पुत्र-से कहानियों के अनेक चरित्र
जो ले जाते हैं मुझे
तब अनायास ही खिलखिला
पड़ते हैं हजारों अक्षर
दीपावली के जगमगाते जीवंत दियों-जैसे
तब मेरे मन के पायदान से
उतर आते हैं कदम-दर-कदम
किसी देव पुत्र-से कहानियों के अनेक चरित्र
जो ले जाते हैं मुझे
किसी उपन्यास की खूबसूरत
वादियों में
तब मैं और भी हो जाती हूँ समृद्ध
तब मैं और भी हो जाती हूँ समृद्ध
जब सुसज्जित सी व्याकरणमाला
करती है मंगलाचरण
हमारी मातृभाषा का
और फिर सौंदर्य से जगमगाती
हमारी तेजस्वी हिंदी
करती है पवित्र हमारी जिह्वा को
और फिर सौंदर्य से जगमगाती
हमारी तेजस्वी हिंदी
करती है पवित्र हमारी जिह्वा को
करोड़ों हृदयों को करती है आनन्दित
और देती है आशीष हमें
हिन्दी भाषी होने का।
--0--
और देती है आशीष हमें
हिन्दी भाषी होने का।
--0--
-0-
2-भिगोने
के बहाने
डॉ. पूर्वा शर्मा
1.
चलो माना कि सारी ख़ताएँ मेरी,
सजा के बहाने ही सही
तुम एक बार तो रूबरू होते।
2.
कई दिनों से मुलाकात नहीं,
सोचा आज शब्दों से ही छू लूँ।
3.
समझता नहीं ये नादाँ दिल कि तू यहाँ नहीं है मौजूद
तुझसे मिलने की ज़िद पर अड़ा, ढूँढे तुझमें खुद का वजूद।
4.
न कोई आहट, न कोई महक
फिर भी आँखें करती इंतज़ार
हो रहा मन हरपल बेक़रार।
5.
सब कुछ तो छीन ले गए,
उपहार में इंतज़ार दे गए.
6.
हर बार छूकर चले जाते
क्यों नहीं ठहर जाते
तुम समुद्री लहरों से मनचले
मैं किनारे की रेत-सी बेबस।
7.
इश्क़-सौदा... बड़ा महँगा पड़ा
वो दिल भी ले उड़ा,
बेचैनी देकर फिर ना मुड़ा।
8.
बड़ी कमाल
हमारी गुफ़्तगू
बिन सुने, बिन कहे
सदियों तक चली।
9.
ये बूँदें भी कमाल हैं ना?
भिगोने के बहाने तुझे आसानी से छू गई.
10.
मुझे तो ये बारिश भी तेरे प्रेम की तरह लगती है
थोड़ी-सी बरस कर, बस तड़पा और तरसा जाती है।
11.
तेरे बिन ना जाने ये राहे कहाँ ले जाएँगी
बस इतनी दुआ है कि इन राहों कि मंज़िल तू ही हो।
12.
कितना तड़पाओगे
बारहमासा तो बीत चला
ये बताओ तुम कब आओगे?
-0-
Wednesday, September 11, 2019
929
1-होना
मत मन तू उन्मन
डॉ. सुरंगमा यादव
अंधकार का वक्ष चीरकर
![]() |
चित्र-प्रीति अग्रवाल |
फिर चमकेगा नवल प्रभात
अँधियारों की उजियारों से
।चलती रहती जंग सदा
रात-दिवस तो बने पताका
बस आते-जाते रहते
पाया है जब सुख का चंदन
यहीं मिलेंगे दुःख के व्याल
गति पवन बदलता रहता
सदा काल की तरह यहाँ
नदिया का भी यहाँ हमेशा
नहीं समान प्रवाह रहा
जीवन भी नदिया की धारा
कभी सिमटना,कभी बिफरना
और कभी विस्तार मिला
उमड़-उमड़ कर दुःख की लहरें
लाएँगी
सुख के मणिगण
होना मत मन तू उन्मन !
-0-
-0-
1-फ़रिश्ता
![]() |
चित्र-प्रीति अग्रवाल |
-प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'
एहसानों की फ़ेहरिस्त
बड़ी हो रही है,
माथे पे चिंता
घनी हो रही है।
अभावों में डूब,
तिनके ढूँढती हूँ जब,
हौले -हौले कोई आवाज़
कानों में गूँजती है तब,
मेरा खुदा, सकुचाया- सा
मुझसे कहे-
क्या करूँ , ये सारे,
करम हैं तेरे!
पर रुक, कुछ फ़रिश्ते
भी संग कर रहा हूँ,
हिफ़ाज़त के सारे
प्रबन्ध कर रहा हूँ।
पंखों पे सजाकर
ले जाएँ उस पार,
लगी, तो लगी रहने दे
अभावों की कतार!!
सोच में खड़ी है,
क्या कोई असमंजस-
इक फ़रिश्ते ने पूछा
काम से रुककर।
अभाव जितने,
दोगुने फ़रिश्ते,
कर्ज़ कैसे अदा हो
ये दुविधा बड़ी है !
मुस्कुराया, सुझाया,
है यह भी तो सम्भव,
तू फ़रिश्ता हमारी थी
जन्मों जन्म तक!!
एहसान तेरे
चुकाए जा रहे हैं,
न कि कर्ज़
चढ़ाए जा रहे हैं!
ऐसा तो पहले
सोचा ही नहीं था,
हुई खुश मैं,
और मेरा खुदा भी खुश था!!!
-0-
2-मुलाक़ात
एहसानों की फ़ेहरिस्त
बड़ी हो रही है,
माथे पे चिंता
घनी हो रही है।
अभावों में डूब,
तिनके ढूँढती हूँ जब,
हौले -हौले कोई आवाज़
कानों में गूँजती है तब,
मेरा खुदा, सकुचाया- सा
मुझसे कहे-
क्या करूँ , ये सारे,
करम हैं तेरे!
पर रुक, कुछ फ़रिश्ते
भी संग कर रहा हूँ,
हिफ़ाज़त के सारे
प्रबन्ध कर रहा हूँ।
पंखों पे सजाकर
ले जाएँ उस पार,
लगी, तो लगी रहने दे
अभावों की कतार!!
सोच में खड़ी है,
क्या कोई असमंजस-
इक फ़रिश्ते ने पूछा
काम से रुककर।
अभाव जितने,
दोगुने फ़रिश्ते,
कर्ज़ कैसे अदा हो
ये दुविधा बड़ी है !
मुस्कुराया, सुझाया,
है यह भी तो सम्भव,
तू फ़रिश्ता हमारी थी
जन्मों जन्म तक!!
एहसान तेरे
चुकाए जा रहे हैं,
न कि कर्ज़
चढ़ाए जा रहे हैं!
ऐसा तो पहले
सोचा ही नहीं था,
हुई खुश मैं,
और मेरा खुदा भी खुश था!!!
-0-
2-मुलाक़ात
![]() |
चित्र-प्रीति अग्रवाल |
नहीं है, तो न सही
फुर्सत किसी को,
चलो आज खुद से,
मुलाकात कर लें!
वो मासूम बचपन,
लड़कपन की शोख़ी,
चलो आज ताज़ा,
वो दिन रात कर लें।
वो बिन डोर उड़ती,
पतंगों सी ख्वाहिशें,
बेझिझक, जिंदगी से,
होती फ़रमहिशे,
चलो ढूँढे उनको
कभी थे जो अपने,
पिरो लाएं, मोती से,
कुछ बिखरे सपने।
यूँ तो बुझ चुकी है,
आग हसरतों की,
चिंगारियाँ पर कुछ,
हैं अब भी दहकती,
दबे, ढके अंगारों की
किस्मत सजा दे,
नाउम्मीद चाहतों को
फिर से पनाह दे!
न गिला, न शिकवा,
सब कुछ भुला दें,
खुश्क आंगन में दिल के,
बेशर्त, बेशुमार,
नेह बरसा दें!!
चलो आज खुद से
मुलाकात कर ले.......!
-0-
Saturday, September 7, 2019
928
दीवारें
भावना सक्सैना
दीवारें
कभी
होती नहीं खाली
उनमें
होती हैं
परछाइयाँ युगों की
बसी
होती हैं
कहानियाँ कईं
कुछ
सूखी, कुछ
सीली।
फिर-फिर
रँगे
जाने पर भी
आँखें
खोज लेती हैं
उनमें
बसे चित्र मन के
नेह, ममता और वात्सल्य के,
कहीं-कहीं
होते हैं चिकोटे
दर्द
भरे किसी दिन के, और
वहीं
रह जाती हैं वे छिली।
घुप्प
अँधेरे में उभर आती हैं
कुछ
दमकती रेखाएँ
रोशन
करती हैं जो
दिनभर
अँधेरे में डूबे
हताश
हो आए मन को
कि
भीतर की लौ को चाहिए
एक
जगह ,जहाँ
बाहर की
हवाओं से आराम हो।
बस
इसीलिए
बाँधना
मत दीवारों को
कुछ
रंगीन चित्रों में,
टाँगना
मत उन पर
चौखुटे
फ्रेम में जड़े
किसी
और की
कोरी
कल्पनाओं के रूप...
कि
उनमें हैं रंग असंख्य
स्मृतियों
के, आकांक्षाओं
के
और
अनगिनत उम्मीदों के।
उनमें
चिड़ियाँ हैं
सपनों
के सफेद पंखों वाली
जो
रह-रह भरती हैं उड़ान
कि
उन्हें पाना है एक मुकाम।
उन
सफेद पंखों में
इंद्रधनुष
के रंग है
इन
रंगों को
बाँधना
नहीं खाँचों में
कि
कोरों से बह
एक
दूसरे में घुल मिल
बनते
हैं रंग नए।
लेकिन
जब चढ़ाए जाते हैं
परत
-दर -परत
एक
दूसरे का अस्तित्व
लील
जाने की चाह में
रंगों
पर चढ़े रंग
हो
जाते हैं बेरंग...
Thursday, September 5, 2019
927
गुरु का वास
मुकेश बाला
कहता है सारा जहाँ
गुरु बिना ज्ञान कहाँ
ज्योति हृदय में जगा दे
दूर हर डर को भगा दे
गुरु प्रकृति का वरदान
ये है दूसरा भगवान
जीवन जहाँ से शुरू
माता वो पहला गुरु
राह को जो रोशन करे
मिले जब गुरु का ज्ञान
जगत में बढ़े सम्मान
हृदय में हो गुरु का वास
तो खत्म होगी हर तलाश
-0-
Monday, September 2, 2019
926
प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’
1-आवारा
मन
![]() |
चित्र; प्रीति अग्रवाल |
जाने कौन से
गलियारों मे,
घूमता,
फिर रहा है।
कहो तो उस से
जो माने! ये तो
अपनी ही,
ज़िद पे अड़ा है।
होगा कुछ भी नही,
यूँ ही,
खाक छानकर
थका लौटेगा,
क्या हुआ?
क्यों हुआ?
ऐसा होता तो??
वैसा न होता तो??
इसी गर्दिश में,
धक्के खाकर,
फिर चुपचाप
सिमट कर बैठेगा।
कहकर देखूं
शायद मान ले-
“मन, अब तू बच्चा नहीं
बड़ा हो चला है,”
"जो है, आज और
केवल आज है,
काल की रट ने
सिर्फ ,
और सिर्फ छला है"!!!
-0-
2- चोरी
मुक़द्दमा, अदालत,
जज और गवाही।
![]() |
चित्र; प्रीति अग्रवाल |
मुद्दा-
मीलॉर्ड, इस शख़्स ने,
मेरी हँसी चुराई!!
पलटवार-
मरते थे हज़ारों
जिस हँसी पे जनाब,
कत्ल हो न दोबारा
सो चुराई!!
क्या ख़ता???
तुकबंदी-
सोलह आने!
कार्यावाही सम्पन्न।
किस्सा हुआ ख़ारिज
सब कुछ सही!!??
-0-
Subscribe to:
Posts (Atom)