1-बहुत दिनों के बाद
कमला निखुर्पा
बहुत दिनों के बाद
खिलखिलाकर हँसे हम
सृष्टि
हुई सतरंगी ...
दूर क्षितिज पे
चमका इंद्रधनुष..
कि हाथों में पिघलती गई आइसक्रीम ...
मीठी बूँदें जो गिरी आँचल पे
परवाह नहीं की..
चटपटी नमकीन संग
मीठे जूस की चुस्की भर
गाए भूले बिसरे गीत ।
नीले अम्बर तले
बादलों के संग-संग
हरी-भरी वादियों में
डोले जीभर
झूले जीभर
बिताए कुछ यादगार पल ..
तो हुआ
ये यकीं ..
ओ जिंदगी ! सुनो जरा
सचमुच तुम तो हो बहुत हसीं ..
बस हमें ही जीना नहीं आया कभी...
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2-चैत की रात/ नंदा पाण्डेय
चैत की रात का उत्साह ऐसा
कि ,
बिना किसी अनुष्ठान के उसने
अपनी अतृप्त कामनाओं में
रंग भरने का निश्चय कर लिया
आज पहली बार
आँगन में
बह रही
पछुआ हवा के
विरुद्ध जाकर वह
अपनी तमाम दुविधाओं को
सब्र की पोटली में बाँधकर
मौन की नदी में गहरे गाड़
आई,
बहा आई आस्थाओं, संस्कारों ,
परम्पराओं और नैतिकताओं
के उस
भारी भरकम दुशाले को भी
जिसे ओढ़ते हुए उसके काँधे झुकने लगे थे
ढिबरी की लाल-लाल रोशनी
और ढोल मंजीरों की आवाजों
के बीच
सबसे नजरें बचाकर
अपने वक्ष में गहरे धँसी सभी कीलों को
चुन-चुनकर उखाड़कर फेंकती
गई
अंत कर दिया उसने अँधेरों के प्रारम्भ को ही
अब आंगन का मौसम बदल गया
टूटी हुई वर्जनाओं और मूल्यों
की रस्साकसी में खींचते
सदियों से उजड़े उस आँगन की रूह
आज फिर से धड़क उठी थी
वर्षों से जो ख्वाब ! उसकी
बंद मुठ्ठी में कसमसा रहे थे
अब उसमें पंख उग आए हैं...!
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3-रश्मि लहर
1-सुनो कवि!
विषमताओं की कोख से उपजी
निर्धनता की ऑंतों से उलझकर
वेदना की तीव्रता को सहती
हुई
अपने स्वरूप को टटोलते हुए
सचेत हो पड़ी है कविता!
युवाओं के
तिलमिलाते शब्दों से गुथी
नहीं सजना चाहती है
लबराते अधरों पर!
न रुकना चाहती है
प्रणय के प्रकंपित स्वरों
पर..
आज!
व्यवस्था से खिसियाए
संपूर्ण युग की
सहकार बनना चाहती है कविता।
ज़मींदोज़ सिद्धांतों को
ललकारती
संवेदना की
यर्थाथवादी काया के साथ..
कविता
करती है शंखनाद!
सुनो कवि!
शब्दों का
अवसादी निनाद!
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3-अनियंत्रित
स्वप्न
झाँक रहे हैं नयनों के
कोने-कोने से
स्वप्न।
छिपे कांख में थे यथार्थ
की,
कसमसाए वे कब?
पुलकित-पवन उम्मीदों की
भी,
वे पाए थे कब??
दौड़ रहे मन के कानन
में, मृगछौने-से
स्वप्न।
गलबहियाँ कर के मिलतीं,
कुछ स्मृतियाँ चंचल।
रंगत बदले फिर कपोल,
मल दें बतियाॅं सन्दल।।
खूब लुभाते हैं माखन-
मिश्री दोने-से
स्वप्न।
रूप सजाता मन, अतीत के
विरही वादों का।
पुनर्जन्म ज्यों होता भूली-
बिसरी यादों का।।
कर लेते मन को वश में,
जादू-टोने-से
स्वप्न।।
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रश्मि लहर, इक्षुपुरी कालोनी, लखनऊ-226002
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4- अनिमा
दास
कलंक भी है सौंदर्य (सॉनेट)
मंजुरिम सांध्य कुसुम. मधुर ज्योत्स्ना में है दीर्घ प्रतीक्षा
तुम्हारा आगमन एक भ्रमित कामना मात्र लेती है परीक्षा
दृगंचल में शायित इच्छा..व इच्छा में है अनन्य अभिसार
कल्पना ही कल्पना है..हाय! वर्णिका में है यह अभ्याहार।
अस्ताचल की अरुणिमा में...मंत्रमुग्ध सा यह मुखमंडल
कृत्रिम क्रोध से स्पंदित हृदय में जैसे नव प्रणय पुष्पदल
द्वार से द्वारिका पर्यंत है कृष्णछाया, हाँ ! क्यों कहो न ?
ऐ ! लास्य-लतिका, ऐ ! मानिनी मदना,
शून्य में बहो न।
कलंक भी सौंदर्य है..यह कहा था मुझे सुनयना ने कभी
सौम्य-मृदु अधरों से छद्म -शब्दों का मधु झर गया तभी
देहान्वेषी ने उसके अंगों का अग्नि से किया था अभिषेक
तथापि निरुत्तर प्रतिमा में शेष नहीं था मुक्ति का अतिरेक।
स्वप्नाविष्ट प्रकृति,अद्य
अंतर्मुखी विवेचना में है पुनः संध्या
तिक्त वासना में है चीत्कार करती क्यों शताब्दी की बंध्या?
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