घिरा अँधेरा घन,लहरें पतवार कैसे छोड़ दूँ।
जीना अभी, करना बहुत संसार कैसे छोड़ दूँ।
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2-परमजीत कौर 'रीत'
ग़ज़ल -1
अँधेरों की फ़ितरत का क्या कीजिए
चिराग़ों का क़द ही बढ़ा
लीजिए
इसी में सुकूँ ज़िन्दगी का असल
दुआ लीजिए और दुआ दीजिए
ये ही नफ़रतों का करेंगी इलाज़
जड़ी-बूटियाँ प्यार की बीजिए
समंदर सी रख ली है ग़र तिश्नगी़
न कम होगी, सौ-सौ नदी पीजिए
खुदा ! ये दुआ है करूँ बंदगी
भले मुझको कम ज़िन्दगी दीजिए
ग़ज़ल -2
कहाँ कोई किसी से कम यहाँ था
ग़र इक तालाब तो दूजा कुआँ था
गिरा पत्ता तो हावी हैं हवाएँ
शज़र के साथ कब वह नातवाँ था
उन्हीं रिश्तों को परखा दूरियों ने
वो जिनका नाम ही नज़दीकियाँ था
मुझे थी पास होने की हिदायत
उन्हें हर बार लेना इम्तिहाँ था
नहीं था तर्क-ए-त'अल्लुक़ ये सच,
पर
पलटकर 'रीत' देखा
भी कहाँ था
ग़ज़ल -3
दिल से मिलें ग़र लोग, याराना बनता है
तार जुड़ें बेमेल, तमाशा बनता है
पेट काटकर तिनका-तिनका जोड़ें तब
सिर ढकने को एक ठिकाना बनता है
पंछी, पत्ते, फूल साथ छोड़ देते जब
बूढ़े पेड़ का मौन सहारा बनता है
वक्त के एक इशारे पर मंज़र बदलें
खुशी की आँखों में ग़म खारा बनता है
कुछ तो बात है हममें, सब यह कहते हैं
यूँ ही नहीं हर कोई दीवाना बनता है
धुंध भले दीवार बने रस्ता रोके
फिर भी सूरज का तो आना, बनता है
-परमजीत कौर 'रीत'
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