पथ के साथी

Thursday, August 3, 2017

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रमेशराज की मुक्तछंद कविताएँ

1- गिद्ध

पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
चहचहाती चिड़ियों के बार में
कुछ भी नहीं सोचते।

वे सोचते हैं कड़कड़ाते जाड़े की
खूबसूरत चालों है बारे में
जबकि मौसम लू की स्टेशनगनें दागता है,
या कोई प्यासा परिन्दा
पानी की तलाश में इधर-उधर भागता है।

पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
कोई दिलचस्पी नहीं रखते
पार्क में खेलते हुए बच्चे
और उनकी गेंद के बीच।
वे दिलचस्पी रखते हैं इस बात में
कि एक न एक दिन पार्क में
कोई भेड़िया घुस आगा
और किसी न किसी बच्चे को
घायल कर जाएगा।

पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
मक्का या बाजरे की
पकी हुई फसल को
नहीं निहारते,
वे निहारते है मचान पर बैठे हुए
आदमी की गुलेल।
वे तलाशते हैं ताजा गोश्त
आदमी की गुलेल और
घायल परिन्दे की उड़ान के बीच।

पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
रेल दुर्घटना से लेकर विमान दुर्घटना पर
कोई शोक प्रस्ताव नहीं रखते,
वे रखते हैं
लाशों पर अपनी रक्तसनी  चोंच।

पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
चर्चाएँ करते हैं
बहेलिये, भेडि़ए, बाजों के बारे में
बड़े ही चाव के साथ,
वे हर चीज को देखना चाहते हैं
एक घाव के साथ।

पीपल जो गिद्धों की संसद है-
वे उस पर बीट करते हैं,
और फिर वहीं से मांस की तलाश में
उड़ानें भरते हैं।

बड़ी अदा से मुस्कराते हैं
‘समाज मुर्दाबाद’ के
नारे लगाते हैं
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध।
-रमेशराज-0-


2- बच्चा माँगता है रोटी

बच्चा माँगता है रोटी
माँ चूमती है गाल |
गाल चूमना रोटी नहीं हो सकता,
बच्चा माँगता है रोटी।

माँ नमक-सी पसीजती है
बच्चे की जिद पर खीजती है।
माँ का खीझना-नमक-सा पसीजना
रोटी नहीं हो सकता
बच्चा माँगता है रोटी।

माँ के दिमाग में
एक विचारों का चूल्हा जल रहा है
माँ उस चूल्हे पर
सिंक रही है लगातार।
लगातार सिंकना
यानी जली हुई रोटी हो जाता
शांत नहीं करता बच्चे भूख
बच्चा माँगता है रोटी।

माँ बजाती है झुनझुना
दरवाजे की सांकल
फूल का बेला।
बच्चा फिर भी चुप नहीं होता
माँ रोती है लगातार
माँ का लगातार रोना
रोटी नहीं हो सकता
बच्चा माँगता है रोटी।

बच्चे के अन्दर
अम्ल हो जाती है भूख
अन्दर ही अन्दर
कटती हैं  आंत
बच्चा चीखता है लगातार
माँ परियों की कहानियाँ सुनाती है
लोरियाँ गाती है
रोते हुए बच्चे को हँसाती है |

माँ परियों की कहानियाँ सुनाना 
लोरियाँ गाना 
रोते हुए बच्चे को ।हँसाना
रोटी नहीं हो सकता
बच्चा माँगता है रोटी |

माँ रोटी हो जाना चाहती है
बच्चे के मुलायम हाथों के बीच |
माँ बच्चे की आँतों में फ़ैल जाना चाहती है
रोटी की लुगदी की तरह |
बच्चा माँगता है रोटी |

बच्चे की भूख
अब माँ की भूख है
बच्चा हो ग है माँ |
बच्चा हो गयी है माँ
बच्चा माँ नहीं हो सकता
बच्चा माँगता है रोटी |
-0-




3-कागज के थैले और वह

उसके सपनों में
कागज के कबूतर उतर आए हैं
वह उनके साथ उड़ती है सात समुन्दर पार
फूलों की घाटी तक / बर्फ लदे पहाड़ों पर
वह उतरती है एक सुख की नदी में
और उसमें नहाती है उन कबूतरों के साथ।

उसके लिए अब जीवन-सदर्भ
केवल कागज के थैले हैं।
वह अपने आपको
उन पर लेई-सा चिपका रही है।
वह पिछले कई वर्षो से कागज के थैले ना रही है।

वह मानती है कि उसके लिए
केंसर से पीडि़त पति का प्यार
नाक सुड़कते बच्चों की ममता
सिर्फ कागज थैले हैं
जिन्हें वह शाम को बाजारों में
पंसारियों, हलवाइयों की दुकान पर बेच आती है
बदले में ले आती है
कुछ केंसर की दवाएँ
नाक सुडकते बच्चों को रोटियाँ
कुछ और जीने के क्षण।

कभी कभी उसे लगता  है
जब वह थैले बनाती है
तो उसके सामने
अखबारों की रद्दी नहीं होती
बल्कि होते हैं  लाइन से पसरे हुए
बच्चों के भूखे पेट।
वह उन्हें कई पर्तों में मोड़ती हुई
उन पर लेई लगाती हुई
कागज के थैलों में तब्दील कर देती है।
यहां तक कि वह भी शाम होते-होते
एक कागज का थैला हो जाती है / थैलों के बीच।

कभी-कभी उसे लगता है-
वह लाला की दुकान पर थैले नहीं बेचती,
वह बेचती है- बच्चों की भूख,
अपने चेहरे की झुर्रियाँ / पति का लुंज शरीर।

वैसे वह यह भी मानती है कि-
जब वह थैले बनाती है
तो वसंत बुनती है।
उसके सपनों में कागज के कबूतर उतर आते हैं,
जिनके साथ वह जाती है / सात समन्दर पार
फूलों की घाटी तक / बर्फ लदे पहाडों पर /
हरे-भरे मैदानों तक।
वह उतरती है एक सुख की नदी में
और उसमें नहाती है उन कबूतरों के साथ

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