मेरे टूटे मकान में
डॉ०कविता भट्ट
क्या मेरे टूटे मकान में वो फिर आएँगे ?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे
वे आए और आकर चले गए
मेरे मन में अपनी याद जगाकर चले गए
जब मैंने उन्हें विदा किया तो उनकी याद आती थी
उन्हें छोड़कर जब आई मैं वापस
अपने मिट्टी और पठालियों के
बरसात में रिसते–टपकते मकान
में
तो उनकी याद सताती थी !
किचन–बाथरूम न कोई सुविधा जिसमें
टीवी, फ्रिज, कम्प्यूटर न ही मोबाइल
चारों ओर घने पेड़ थे देवदार–अँयार के
और मिट्टी पत्थर के उस घर में
वह कुछ न था जो उनकी चाहत थी
पर मेरे उसी घर में सुख–शांति थे
जहाँ मैं आती थी खेतों से थककर
खाती थी रोटी कोदे की–
घी लगाकर हरी सब्जी के साथ
दूध पीती थी जी भकर और
फिर सोती थी गहरी नींदें लेकर
जबकि मेरे पास नहीं थे बिस्तर
मैंने सोचा- शायद वो मुझे छोड़
अपने घर चले गए
कुछ दिन बाद पता चला कि
चार दिन सुविधाओं में कहीं और रुक गए
मैंने सोचा -अब मैंने उनको भुला दिया
पर उनकी यादों ने मुझको रुला दिया
अब सोचती हूँ यही रह–रह कर कि
क्या..........................................?
मेरे टूटे मकान में क्या वे फिर से आएँगे?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे ।
शब्दार्थ– पठालियों – पत्थर की स्लेटें, कोदे–
मंडुआ एक पहाड़ी अनाज
(दर्शनशास्त्र विभाग ,हे०न०ब०गढ़वाल
विश्वविद्यालय ,श्रीनगर (गढ़वाल) उत्तराखण्ड
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दोहे
1- दोहे- डॉ
(श्री मती) क्रान्ति कुमार
( पूर्व प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय , पूणे)
वन अब कहे पुकार के, सुन नर मेरी बात ।
भस्मासुर
बन कर रहा , अपना ,सबका नाश ॥
तरु
को कटते देख के, पंछी हुए उदास।
पेड़
सभी तो कट गए,अब हो कहाँ निवास ॥
वन
–प्रांतर मे फिर रहे , खग
–गण खोजें वास।
कंक्रीट के इस वन मे, छोड़ चला मन आस ॥
गिरि
सब अब समतल हुए, वन हो गए विलीन।
ऊँचे- ऊँचे महल अब, हुए वहाँ आसीन। ॥
व्याकुल खग दर-दर फिरें, ढूँढ़ें नूतन ठौर ।
अब जाएँ किस लोक मे ,शांति मिले किस ओर ॥
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2-पुष्पा मेहरा
1
वर्ण-वर्ण मिलकर रचें,उसको हिन्दी जान ।
इसकी महिमा जो गुने, होवे वही सुजान ।।
2
माथे पर बिन्दी धरे, सोहे रूप - अनूप ।
सलमा मोती धार के, खिले रूप की धूप ।।
3
भावों की माला पहन, शब्द बराती आय ।
अलंकार सेंदुर भरे, दुलहन हिन्दी भाय ।।
4
पर्व नहीं हिन्दी दिवस, जिसको लिया मनाय ।
जा दिन सबके मन बसे, पंख लगे उड़ि जाय ।।
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