पथ के साथी

Friday, May 8, 2009

गुलमोहर की छॉंव में


गुलमोहर की छॉंव में
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
गर्म रेत पर चलकर आए
छाले पड़ गए पॉंव में
आओ पलभर पास में बैठो
गुलमोहर की छॉंव में ।
नयनों की मादकता देखो
गुलमोहर में छाई है
हरी पत्तियों की पलकों में
कलियॉं भी मुस्काईं हैं।
बाहें फैला बुला रहे हैं
हम सबको हर ठॉंव में।
चार बरस पहले जब इनको
रोप रोप हरसाए थे
कभी दीमक से कभी शीत से
कुछ पौधे मुरझाए थे।
हर मौसम की मार झेल ये
बने बाराती गॉंव में।
सिर पर बॉंधे फूल मुरैठा
सजधजकर ये आए हैं
मौसम के गर्म थपेड़ों में
जीभर कर मुस्काए हैं।
आओ हम इन सबसे पूछें
कैसे हॅंसे अभाव में।
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असभ्यनगर

समीक्षा

असभ्य नगर

असभ्य नगर श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की बासठ लघुकथाओं का संकलन है। लघुकथा को लेकर हिमांशु जी के पास भावनात्मक आवेग के साथ मूल्यपरक जीवनदृष्टि भी है। इन लघुकथाओं को पढते हुए हम हृदय की उन धडकनों के साक्षी बन जाते हैं जिन्हें हिमांशु जी ने अपनी लघुकथाओं की रक्तवाहिनी माना है।

वस्तुत: लघुकथा आयाम की दृष्टि से ही लघु होती है, प्रभाव की दृष्टि से लघुकथाएँ स्थायी चिह्न छोड जातीं हैं। लघुकथा का प्रारंभ और अंत दोनो ही रचना की मारक क्षमता को पैना बनाते हैं। लघुकथा यदि मन को विचलित कर दे, चेतना को झंकृत कर दे या विचार को उद्वेलित कर दे तो उसका सृजन सार्थक हो जाता है। लघुकथा में भावना का स्फोट तो होता ही है, शब्दों की मितव्ययिता लघुकथा की प्रहार क्षमता को लक्ष्य केंद्रित करती है। यहीं लघुकथा शब्दभेदी (अंतर्भेदी) बाण बन जाती है। लघुकथा में शब्द मंत्रों की शक्ति पा जाते हैं, क्योंकि वे चेतना निर्झर से स्वत: बहकर आते हैं। सायास कलात्मकता की सृष्टि कभीकभी लघुकथा की आत्मा को इतने बोझिल आवरण पहना देती है कि भावना का संस्पर्श हो ही नहीं पाता। इस संकलन में हिमांशु जी की अधिकतर लघुकथाएँ इस व्यर्थ के बोझ से मुक्त हैं।

इस संकलन की कुछ लघुकथाएँ मर्म को छू जातीं हैं और कुछ लघुकथाएँ अपने संक्षिप्त कलेवर में भी किसी महागाथा का सार सोंप जातीं हैं। गंगास्नान की पारो सामाजिक कल्याण को गंगास्नान से अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर परिवर्तित मानसिकता का संदेश देती है, वहीं शाप में बिल्लू की माँ शाप के रूप में स्वार्थ आहत होने पर उपजी कटुता को आदर्शों पर वरीयता देकर एक विद्रूप को उजागर कर जाती है। लघुकथा 'संस्कार' संकलन की एक ऐसी लघुकथा है जिसमें लघुकथा के समस्त गुण समाहित हैं। लघुकथा महात्मा और डाकू स्वर्गनरक की अवधारणा के माध्यम से वर्तमान न्याय व्यवस्था के कुरूप चेहरे पर लगे गंभीर मुखौटे को नोच लेने की एक ईमानदार कोशिश कही जा सकती है। वफादारी में कुत्ते के माध्यम से मनुष्य की कृतघ्नता को नकार के गहन स्वर दिए गए हैं। आरोप में जहाँ राजनीति की आपराधिक प्रवृत्तियों का अनावरण है, वहीं स्त्रीपुरुष में तथाकथित शिक्षित वर्ग के मन का कलुष संदेहग्रस्त बौद्धिकता के पहाड पर जमी ब‍र्फ़ की तरह एक बोझ भरा अवसाद छोड जाता हैं।

लघुकथा लौटते हुए में आधुनिक समाज में नारीपुरुष समानता की तमाम लफ्फाजी के बाद भी पुरुष मानसिकता में बसे श्रेष्ठता के भाव को उजागर कर हिमांशु जी ने पतिपत्नी के संबंधों में संदेह के कारण आने वाले भूचाल और पारस्परिक विश्वास की आधारशिला को गहरी मार्मिकता के साथ उद्घाटित किया है। संकलन की अंतिम लघुकथा असभ्य नगर जो संकलन की शीर्षक कथा भी है, नागरी सभ्यता के बड़बोलेपन को जंगली कबूतर और उल्लू के बीच संवाद के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। लघुकथा का अंतिम वाक्य '' मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं। तभी तो ऋषिमुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे।'' असभ्य नगर को एक तार्किक परिणिति तक पहुँचा देता है।

लघुकथा ऊँचाई, चट्टे बट्टे, मुखौटा और मसीहा मानवीय मन की भावुक तरलता तथा सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों को उजागर करने वाली अन्य उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। असभ्य नगर की लघुकथाएं एक ओर मानवीय संवेदनाओं को स्वर देतीं हैं वहीं दूसरी ओर सामाजिक विद्रूपों को पूरे घिनौनेपन के साथ प्रदर्शित कर लेखक के दायित्व बोध की सजगता भी उद्घाटित करतीं हैं। हिमांशु जी की भावुक संवेदना और बेचैनी आशा जगाती है कि भविष्य में वे कुछ और मर्मस्पर्शी लघुकथा संकलन हिन्दी जगत को अवश्य देंगे।

––––– नवीन चतुर्वेदी

जी 1 सार्थक एनक्लेव

साउथ सिविल लाइंस

जबलपुर (म.प्र.)408001