रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
1
कोई मिलता भी कैसे, चाहा नहीं किसी को।
सिर्फ चाहा जब तुम्हें
ही, समय पाखी बन उड़ा..।
2
जाऊँगा कहाँ मैं तुम्हारे बिना
रही तुम्हीं मंजिल, रास्ता तुम्हीं हो!
3
भीड़ और कोलहल, फिर भी अकेला मन
कोई ना आया, याद तेरी आ गई!
4
कैसे मैं तेरा दुःख बाँटूँ
कैसे पाश दुःखों के काटूँ
निशदिन सोचूँ राह ना पाऊँ
पता नहीं किस द्वारे जाऊँ
5
जिस पल सोचा ढंग से जी लें,
तभी किसी ने पत्थर मारा।
कौन पाप मैंने कर डाला
सोच रहा है मन बेचारा।
6
महलों की रौशनी भटकाती हैं उम्रभर!
रह -रहकर हमें टपकता छप्पर याद आया।
7
हो कितना भी अँधेरा, तुम्हें कभी रुकना नहीं है।
सुख -दुःख मौसम समझ लो, बीत जाएँगे सभी
हम तुम्हारे साथ हैं, तुम्हें पथ में रुकना नहीं है।
8
तुम समुद्र हो न?
कहाँ से आते हो?
इतना सारा प्यार
कहाँ से लाते हो!
कुछ तो बोलो
वाणी में वही मिश्री घोलो
9
मैं तुम्हारी रूह का ही एक हिस्सा हूँ
लघुकथा में ज्यों पिरोया एक किस्सा हूँ ।
10
पता नहीं कैसे हो त्राण?
तुझमें अटके मेरे प्राण।
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