पथ के साथी

Sunday, July 17, 2016

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1-  पिता-अनिता ललित

माँ के माथे का हैं सूरज, बच्चों की मुस्कान पिता ,
घर भर की खुशियों की ख़ातिर, हो जाते क़ुर्बान पिता।
सर्दी-गर्मी-बारिश सहते, करते ना आराम कभी ,
सब की ख़्वाहिश पूरी करते, खटते सुबहो-शाम पिता।
रौबीली आवाज़ सुनाती, कठिन तपस्या के क़िस्से ,
भीतर से निर्मल, कोमल-मन, दिखने में चट्टान पिता।
सुर्ख़-उनींदी आँखें खोलें, राज़ अधजगी रातों का ,
बच्चों को परवान चढ़ाते, खो देते पहचान पिता।
शाम ढले जब वापस आते, घर में रौनक छा जाती ,
दीवारें भी हँस पड़ती हैं, घर की ऐसी शान पिता।
अनुशासन का पाठ पढ़ाते, मुस्काना भी भूल गए ,
पथरीली राहों पर चलते, हर सुख से अंजान पिता।
घर पर आँच न आने देते, दुनिया से लड़ जाते हैं ,
माँ के मन-मंदिर में बसते, हैं ऐसे भगवान पिता।
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2-गीत-अनिता मंडा
आधार= सार छंद 16+12=28(अन्त में 2 गुरु)
तुम ही सूरज तुम ही चंदा, तुम ही जीवन मेरा।
पाकर तुम को पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।

बनकर ख़ुशबू तुम्हीं समाए, उपवन के फूलों में।
तुम्हीं प्रेम की पींगें बनते, सावन के झूलों में।
प्रेम सुधा का सावन बरसे, भीगे तन-मन मेरा
पाकर तुमको पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।

नभ पर चाँद सितारे लिखते नित ही प्रेम कथाएँ
पाया उर ने परस प्रेम का, सारी मिटीं व्यथाएँ।
आशाओं ने पथ दिखलाया, निर्भय अब मन मेरा।
पाकर तुमको पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।

उड़े भोर में जो थे पंछी, साँझ ले घर आ
मन का बंधन मन ही जाने, कब खुले बंध जा
प्रेम तुम्हारा बना साधना, लूटे कौन लुटेरा।
पाकर तुमको पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।

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3-परंपरा-कृष्णा वर्मा

सच में बड़े हो रहे हो तुम
मन मुताबिक चुनने जो लगे हो अब
अपने कपड़े और जूते
हाँ फ़ीते भी तो बाँधना सीख गए हो
बातों को साधना ही नहीं अब
घुमा-फिरा कर इच्छाओं को
व्यक्त करना भी सीख गए हो
अच्छी कोशिश कर लेते हो
बिना रोए रूठे अब तो
मनुहार कर
अपनी बात मनवाने की
मेरी बात-बात पर
प्रश्न-चिह्न और
मेरे सवालों पर
तुरन्त सूझने लगे हैं अब तुम्हें उत्तर
तुम्हारी बढ़ती ऊर्जा ने
फिर इक बार बदल दी है
मेरे विचारों की सतह
धैर्य पर और भी मजबूत
होती जा रही है
तुम्हारी आजी की पकड़
पहले से कहीं अधिक
चटक हो चले हैं
मेरे सपनों के रंग
और प्रेम घट में भी
कुछ ज़्यादा ही
भरने लगी है मिठास
तुम क्या जानो
तुम्हारी आँखों में टँकी
जिज्ञासा ने
कैसे बढ़ा दी है मेरी
कहानियाँ कविताएँ गढ़ने की क्षमता
सच कहूँ तो
पल-पल तुम याद दिलाते हो
मुझे
अपने पिता का बाल्यकाल।
 
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4-डॉ सिम्मी भाटिया
1-संवेदनाओ से परे



राख के ढेर में
ढूँढ़ती
सूनी आँखें
कुछ अवशेष
पैरो तले पगड़ी
कर्ज़ में डूबा
विचलित मन
माँगे रह गयी अधूरी
मुट्ठी भर दाने
न निगले गए
निगल गया
दहेज़ दानव
हाँहुँच गया मानव
चाह भौतिक सुख की
संवेदनाओ से परे
टूटते
सपने -आशाएँ
तिस्कृत भावनाएँ
रह जाते अवशेष....
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2-प्रतिबिंब- डॉ सिम्मी भाटिया

ऐसा हो प्रतिबिंब
सृदृढ़ निराला
न हो काली छाया
राग द्वेष से परे
झलके प्यार
और उद्गार विचार
हो ऐसी सौगात
निर्मल सहज
मर्यादित भावनाएँ
ज्ज्ववल पारदर्शी
किरदार
असत्य से ओझल
रेशमी रिश्ते
कुसंगत से परे
मृदु शीतल अभिव्यक्ति
मनमोहक व्यवहार
महकता व्यक्तित्व
धूल छँटे आईना
ऐसा हो प्रतिबिम्ब
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