पथ के साथी

Friday, September 18, 2015

बस एक दिया



क्षणिकाएँ 
 ज्योत्स्ना प्रदीप
 1
विषैले सर्प
शर्म से
कम  नज़र आने लगे
देखकर आज के इंसान को
जो स्वयं ही
विष उगाने  लगे ।
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2
केक के चारों ओर
इतनी मोमबत्तियाँ !
कुछ रौशनी
उस झोपड़ी में भी पहुँचा दो
जो बंगले के पीछे
लेकर खड़ी  है
बस एक   दिया । 
 -0-
3
वो उसके अरमानों का
 गला घोंट कर
फरार हो गया,
 मुजरिम न कहलाया
मगर किसी की
नाकामयाब हत्या
 की कोशिश में
फ़ौरन गिरफ्तार हो गया ।
 -0-
4
गुलाबो का कहना था -
जो कल गुज़र गया ,
वो आदमी नहीं था
भेड़िया था ,बस........
 मेमने का लिबास पहना था
-0-
2-कृष्णा वर्मा

1
रात की ओढ़नी पर टँके
अनगिनित सितारे
गिनती रही
बचपन से लेकर
बालों की सफेदी तक
फिर भी गिनती
अधूरी की अधूरी ही रही
टूटते तारे को देख
दुख से भर आता दिल
हाय बिछुड़ गया बेचारा
स्वजनों और मित्रों से
समाप्त हो गई इसकी यात्रा
भटकने लगती सोच और
लग जाता
अनगिन सवालों का
एक ताँता सा भीतर
दादी कहा करती थीं
टूटता तारा देखो
तो कोई दुआ माँग लो
सोच में डूब जाती
कैसे हो जाऊँ इतनी ख़ुदगर्ज़
कि मरते से कुछ माँग लूँ
दादी के कहे को
कई बार विचारा मगर
नहीं जुटा पाई हिम्मत
टूटते तारे से
कभी कुछ माँगने की ।
-0-
2
केवल दो वर्ण
नन्हा सा शब्द डर
कँपा देता है बदन
सर से पाँव तक
बिना खड़िया के खींच देता है
भयावह लकीरें ज़हन में
तान देता है होंठों पे चुप्पी
मढ़ देता है आँखों में
अपनी तस्वीर और
छिटक देता है चेहरे पे
भीगा हुआ ख़ौफ
कस के पकड़ लेता है
हाथ बचपन से और
छोड़ता नहीं सांसों के
अंतिम सफर तक
डराता रहा
झूलों के ऊँचे हुलारों से
दीवारों पर रेंगती छिपकलियों से
कॉकरोचों की भागम-भाग से
अँधेरे की कालिमा से
इम्तिहान के परिणाम से
कहानियों में भूतों चुडैलों से
शरारतें करने पर झिड़कियों से
पीछा करते छोटे-छोटे डर
रात भर डराते और सुबह उगे
सूरज के तेज में दब जाते
उम्र के साथ बढ़ता गया
मेरे डर का कद 
बदला उसका स्वरूप
डरने लगी मैं अब
लोगों की वकृ चालों से
कुटिल मुसकानों से
दोस्ती की आड़ में
पछाड़ने के इरादों से
सड़क की भीड़ बसों के सफर से
अकेली मेढ़ों पगडंडियों से
मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारों की पवित्रता से
जानों के स्पर्श अपनों के प्यार से
जिस्म को मापती लोगों की निगाहों से
सच कहूँ तो
इस उम्र तक भी
टँगी है दिल पर ज्यूँ की त्यूँ 
आज भी डर की तख़्ती।
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खामोशी भी हम सुन लेंगे



1-खामोश स्वर
कमल कपूर

अब जब तुम आना तो लाना गीतों वाली वही किताब
जिसके भीतर रख न पाये थे तुम कभी कोई गुलाब।

कुम्हलाये हाथों पे उकेरना मेहंदी के फूल बहुत सारे
और आँचल में भर देना तोड़ गगन के रेशमी तारे।

श्वेत हो चले बालों में गूंथना दूध मोगरे का गजरा
सपनीले नयनों मे आंजना अपनी चाहतों का कजरा।

नहीं ओढ़नी लाल चुनरिया गोटे और किनारी वाली
हमें लुभाती है बस केवल पान रंगे होठों की लाली।

माथे पर बिंदिया की जगह धर देना प्रिय लाल अधर
जैसे सजते सूरज चंदा नीले काले ऊदे नभ पर।

प्रियवर! करना होगा तुमको एक और जरूरी काम
इस शहर के हर दरख्त पर लिखना होगा मेरा नाम।

एक शब्द भी न कहना खामोशी भी हम सुन लेंगे
उन खामोश स्वरों से ही फिर नया हीत एक बुन लेंगे।

(काव्य संग्र भीगी चाँदनी से)

-0-कमल कपूर,२१४४/९सेक्टर,फरीदाबाद१२१००६
हरियाणा-मोबाइल-०९८७३९६७४५५
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2-मंजूषा मन

नशेमन जितने बनाये उजाड़ डाले गए।
खुद अपने ही घर से हम निकाले गए।

बहुत ग़ुरूर है तुमको तो ज़रा ये सुन लो,
एक न एक दिन सितम करने वाले गए।

पत्थर की मूरतों से टकरा के ज़ख्म खाए,
अपने ही कदम न हमसे सँभाले गए।

अपनी पलकों में काँटे तो चुभने ही थे,
ऐसे सपने अगर पलकों में पाले गए।

सख्तियाँ अपने दिल पर न मन कर सके,
न उसके अंदाज़ हमसे देखे -भाले गए।
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3-सुनीता पाहूजा

हिन्दी  हो हम सबके अंतर्मन में,
थी यही बात चहुँ दिश सम्मेलन में

उन्तालीस  देशों से अतिथि पधारे थे
और भी हिन्दी  के प्रेमी यहाँ सारे थे

बधाई! जिन्हें मिला विश्व हिन्दी  सम्मान
हिन्दी  उनका जीवन है, हिन्दी  है अभिमान

भाषण थे - आशाओं भरे, ओजस्वी भी,
अब हम पर है - देखें कितना कार्य  करें

वक्तव्यों,सुझावों की बहार थी
बस हिन्दी  की जयजयकार थी

कहीं सराहना थी, कहीं रोष हुआ
पर हर क्षण हिन्दी  का उद्घोष हुआ

समानांतर चलते रहे अनेक सत्र वहाँ
 कुछ सुना कुछ कहा, कुछ रह भी गया

प्रदर्शनियों में बिखरा था हिन्दी  -ज्ञान
वातावरण में थी हिन्दी  गुंजायमान

रोचक- रोचक इतना कुछ था
कुछ देख लिया कुछ छूट गया

वर्षों से बिछुड़े कुछ मित्र मिले
और कितने ही नए बने

आई टी, पत्रकारिता या  प्रशासन
न्यायालय, विज्ञान या शिक्षण

हर क्षेत्र में हिन्दी  का शोर था
सब कुछ हिन्दी  में सराबोर था

हिन्दी  को मिले जो करनी का रंग
तब होगी सचमुच मन में उमंग

हर ज़ुबान हर घर की बने भाषा
तब संयुक्त राष्ट्र की बनेगी आशा

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सहायक निदेशक,केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो,गृह मन्त्रालय    -
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