क्षणिकाएँ
ज्योत्स्ना प्रदीप
1
विषैले सर्प
शर्म से
कम नज़र आने लगे
देखकर आज के इंसान को
जो स्वयं ही
विष उगाने लगे ।
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2
केक के चारों ओर
इतनी मोमबत्तियाँ !
कुछ रौशनी
उस झोपड़ी में भी पहुँचा दो
जो बंगले के पीछे
लेकर खड़ी है
बस एक दिया ।
-0-
3
वो उसके अरमानों का
गला घोंट कर
फरार हो गया,
मुजरिम न कहलाया
मगर किसी की
‘नाकामयाब
हत्या’
की कोशिश में
फ़ौरन गिरफ्तार हो गया ।
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4
गुलाबो का कहना था -
जो कल गुज़र गया ,
वो आदमी नहीं था
भेड़िया था ,बस........
मेमने का लिबास पहना था
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2-कृष्णा वर्मा
1
रात की
ओढ़नी पर टँके
अनगिनित
सितारे
गिनती
रही
बचपन से
लेकर
बालों
की सफेदी तक
फिर भी
गिनती
अधूरी
की अधूरी ही रही
टूटते
तारे को देख
दुख से
भर आता दिल
हाय
बिछुड़ गया बेचारा
स्वजनों
और मित्रों से
समाप्त
हो गई इसकी यात्रा
भटकने
लगती सोच और
लग जाता
अनगिन
सवालों का
एक ताँता
सा भीतर
दादी
कहा करती थीं
टूटता
तारा देखो
तो कोई
दुआ माँग लो
सोच में डूब
जाती
कैसे हो जाऊँ
इतनी ख़ुदगर्ज़
कि मरते से कुछ
माँग लूँ
दादी के कहे को
कई बार विचारा
मगर
नहीं जुटा पाई
हिम्मत
टूटते तारे से
कभी कुछ माँगने
की ।
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2
केवल दो
वर्ण
नन्हा
सा शब्द ‘डर’
कँपा
देता है बदन
सर से
पाँव तक
बिना खड़िया के खींच देता है
भयावह
लकीरें ज़हन में
तान
देता है होंठों पे चुप्पी
मढ़ देता
है आँखों में
अपनी
तस्वीर और
छिटक
देता है चेहरे पे
भीगा
हुआ ख़ौफ
कस के
पकड़ लेता है
हाथ
बचपन से और
छोड़ता
नहीं सांसों के
अंतिम
सफर तक
डराता
रहा
झूलों
के ऊँचे हुलारों से
दीवारों
पर रेंगती छिपकलियों से
कॉकरोचों की भागम-भाग से
अँधेरे
की कालिमा से
इम्तिहान
के परिणाम से
कहानियों
में भूतों चुडैलों से
शरारतें
करने पर झिड़कियों से
पीछा
करते छोटे-छोटे डर
रात भर
डराते और सुबह उगे
सूरज के
तेज में दब जाते
उम्र के
साथ बढ़ता गया
मेरे डर
का कद
बदला
उसका स्वरूप
डरने
लगी मैं अब
लोगों
की वकृ चालों से
कुटिल मुसकानों
से
दोस्ती
की आड़ में
पछाड़ने
के इरादों से
सड़क की
भीड़ बसों के सफर से
अकेली
मेढ़ों पगडंडियों से
मंदिर
मस्ज़िद गुरुद्वारों की पवित्रता से
अनजानों
के स्पर्श अपनों के प्यार से
जिस्म
को मापती लोगों की निगाहों से
सच कहूँ
तो
इस उम्र
तक भी
टँगी है
दिल पर ज्यूँ की त्यूँ
आज भी
डर की तख़्ती।
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