पथ के साथी

Wednesday, July 1, 2015

चोरी का नायाब नमूना देखिए-



चोरी का नायाब नमूना देखिए-
असभ्य नगर लघुकथा –संग्रह ( 1991) में छपी लघुकथा , जो बहुत पत्र –पत्रिकाओं में छप चुकी है, नाट्य रूपान्तर हो चुका है, बेशर्मी से चोरी की गई । कुछ अपने संवाद भी डाल दिए  हैं।  डॉ ज्ञान प्रकाश  जी का कारनामा । ये  हैं सहायक आचार्य (सांख्यकीय), मेडिकल कॉलेज आगरा।
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1-मेरी लघुकथा का यह लिंक लघुकथा डॉट कॉम में 2007
1-http://old.laghukatha.com/himanshu-04.htm
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यह लिन्क गद्य कोश का
http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%8A%E0%A4%81%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%88_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E2%80%98%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%81%E2%80%99

ऊँचाई / रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी-- लगता है, बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आनेवाला था! अपने पेट का गड्ढ़ा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरोगे?” मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफ़र की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हा्थ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाते वक्त रोज भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबूजी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आये होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र। सुनोकहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं सांस रोकर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।
वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिलती। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।" उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। धान की फसल अच्छी हो गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"
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चोर का लिन्क
एहसास
पिताजी के अचानक घर पर आ जाने से मेरी पत्नी तमतमा उठी….
लगता है कि, बूढ़े को फिर से पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ ऐसे तो कभी नहीं आते
इनके घरवाले न जाने कहाँ से चले आते है मांगनेअपना खर्चा तो चलता नहीं,  इनका कहाँ से भरें ?”
मैं अपनी नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा।
पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफ़र की थकान दूर कर रहे थे।
इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया है
बेटे का यूनिफार्म फट गया है, वह स्कूल जाते वक्त रोज भुनभुनाता है।
पत्नी के इलाज के लिए पिछले महीने जो दवाइयाँ ली थी उसका हिसाब अभी तक नहीं कर पाया,  दुकान वाला याद दिलाने के साथ ही एहसान जतलाना नहीं भूलता।
बाबूजी को भी इसी समय आना था क्या ….
घर में इक बोझिल सी चुप्पी पसरी हुई थी।
खाना खा लेने के बाद पिताजी ने मुझे पास बुलाया और बैठने का इशारा किया
मैं आशंकित मन से उनके पास आ बैठा और सोचने लगा कि कोई आर्थिक समस्या लेकर ही आये होंगे….
पिताजी कुर्सी पर उठ कर बैठ गए।
एकदम बेफिक्र से …!!!
जैसे कि उन्हें मेरे मन में चल रहे उथल पुथल कि कोई जानकारी न हो, सच ही था
उन्हें कैसे जानकारी होती।
सुनो कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा।
मैं सांस रोक कर उनके मुँह की ओर देखने लगा।
रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ने थे ….
दिमाग भावी रणनीति बनाने कि कोशिश में कि अगर उन्होंने पैसे मांगे तो मैं तो ….
पर बाबूजी बेफिक्र से कुर्सी पर बैठ रहे। सहसा
वे बोलेखेती के काम में घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिल पाती । इस समय काम का काफी जोर है।
मैं रात की गाड़ी से ही वापस चला जाऊँगा।
तीन महीने हो गए, न तुम्हारी कोई चिट्ठी मिली और न ही कोई समाचार
जब तुम परेशान होते होतभी ऐसा करते हो। ये मुझे मालूम है
मैं अपनी जगह बुत बने बैठा रहा, ना जाने किस उधेड़ बुन में …..
उन्होंने अपनी जेब से नोटों कि पतली से गड्डी निकाल कर मेरी तरफ बढ़ा दिए,
रख लो। दस हजार है, तुम्हारे कुछ काम आएंगे
धान की फसल इस बार अच्छी हो गई थी, सो बच गए।
घर में कोई दिक्कत नहीं है, घर का खर्च आसानी से चल रहा है ।
तुम बहुत कमजोर से लग रहे हो
ढंग से खाया-पिया करो और चिंता न किया करो, जो होता है सब अच्छे के लिए ही होता है।
बहू का भी ध्यान रखो।
मैं कुछ नहीं बोल पाया, सिर्फ दो बूंद आसूं के मेरी आखों से ढलक गए।
शब्द जैसे मेरे हलक में फंस कर रह गये।
मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से सर पर हाथ रख कर प्यार से ही डांटा
ले लो, बहुत बड़े नहीं हो गये हो ..?”
नहीं तो।मैं बस इतना ही बोल पाया, मैंने हाथ बढ़ाया।
पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए।
बचपन दिनों कि याद आ गई, जब पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर सिक्का टिका देते थे,
पर तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं ……………
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- डॉ. ज्ञान प्रकाश

शिक्षा: मास्टर ऑफ़ साइंस एवं डॉक्टर ऑफ़ फिलास्फी (सांख्यकीय)
कार्य क्षेत्र: सहायक आचार्य (सांख्यकीय), मेडिकल कॉलेज आगरा।
खाली समय में गाने सुनना और कविताएँ एवं शेरो शायरी पढ़ना।