पथ के साथी

Saturday, August 13, 2022

1214

 ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं

अंजू खरबंदा 

  


रात भर ठीक से सो नहीं पा रही आजकल

घर के छोटे- मोटे काम निबटा 

सुबह से लेटी हूँ शिथिल तन मन से

बाहर सब्जी वाले की आवाज़ पड़ रही है कानों में

सोचती हूँ-

ठूँ जाऊँ ताजी सब्जियाँ खरीद लाऊँ

पति मुझे अक्सर कहते हैं गाय

जो हरी भरी ताजी सब्जियाँ देखते ही खिंची चली जाती है

ये बात मैं सभी को बताती हूँ खूब हँस- हँसकर

पर आज ये बात याद कर

एक हल्की सी मुस्कुराहट भी नहीं आई चेहरे पर! 

आखिर 

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं!

कुछ देर बाद गली से आती आवाजें बदलने लगती हैं

नारियल पानी....फल....!

सोचती हूँ उठूँ जाऊँ

कुछ फल ही खरीद लाऊँ

डॉक्टर भी कहते है रोज खाने चाहिए

किसी न किसी रंग के फल

पर लगता है जान ही नहीं शरीर में

ठूँ और जाऊँ बाहर

आखिर

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं !

बीच -बीच में आवाजों का शोर रंग बदलता है

कबाड़ी वालाssss

जिप ठीक करवा लोssss

चाकू छुरी तेज करवा लोssss

कुकर रिपेयर करवा लोssss

लेटे- लेटे याद आते है कितने ही काम

पर निर्जीव-सी पड़ी रहती हूँ पलंग पर

बस यही सोचती

आखिर

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं!

शाम गहराने लगी है

छत की ओर तकती आँखें दुखने लगी है

सोचती हूँ गुलाब जल डाल लूँ आँखों में

शायद कुछ राहत मिले

हाथ से टटोलकर

पास रखी टेबल से उठाती हूँ गुलाब जल

ड्रापर से बूँद- बूँद कर निकलती है ठंडक 

मूँद लेती हूँ आँखें

चलो कुछ पल तो चैन मिलेगा

आँखों को भी और दिमाग़ को भी

सुकून की चाहत में 

आँखें बंद करते ही

सोचने लगती हूँ फिर वही

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं आखिर! 

-0-