1- प्रियंका गुप्ता
माँ होती बेटियाँ
बेटियाँ
जब इतनी बड़ी हो जाती हैं
कि माँ की साड़ी पहनकर
इतराने से भी आगे
अब वे माँ की आत्मा ओढ़ती हैं
तब बेटियाँ
बेटियाँ नहीं होती
वे माँ हो जाती हैं
अपनी ही माँ की
जो किसी छोटी बच्ची सी
ज़िद करने लगती हैं
अपनी ही बेटी से
खाने को, पहनने को लेकर
और अक्सर मुँह फुलाकर
जाने किस बात पर
बस लेट जाती हैं करवट बदले
उम्र उन्हें अब
पेटकुइयाँ नहीं सोने देती
इसलिए बस करवट लेटी
बिना जवाब दिए
किसी भी सवाल का
सिर्फ खुद जवाब चाहती हैं
ऐसे में
बेटियाँ, बेटियाँ कहाँ रह पाती हैं?
वे तो माँ हो जाती हैं
अपनी ही नन्ही मुन्नी माँ की...
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2-लिली मित्रा
1-अंतहीन
शुरूआत
तुम
क्या खत्म कर देना चाहते हो?
हमारे बीच जो है
वो तो शुरू ही होता है
खत्म होने के बाद
तो ऐसा है
सुनो मेरी बात
आओ पहले जो खत्म होने
वाला है उसे खत्म करें,
ये रात खत्म होती हैं
और उसके बाद
जो दिन शुरू होता है
वो भी खत्म हो जाता है
रोज़ाना यही चक्र
घूमता रहता है
हम इस चक्र के साथ
थोड़े ही घूम -घूमकर
रोज़ एक दिन
और रोज़ एक रात
खत्म करेंगे..
कुछ समझे? या नहीं?
हम तो शुरू होंगे
इस 'खत्मचक्र' के
खत्म होने के बाद
क्योंकि-
उस शुरू का उद्गम शून्य में
होता है,
और मुझे ऐसा लगता है
शून्य में सब कुछ
अंतहीन होता है...
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2-झूठे
ख़्वाब
देखूँ तुम्हें
छूकर
करीब से 'झूठे-ख़्वाबो'!
पलकों पर सजा देते हो
झिलमिलाते अनगिनत
सितारों के मखमली अहसासी-शामियाने
जिनकी क्षणिक चकाचौंध से
भरमा जाता है यह 'मूढमन'
भूलकर चिलचिलाती धूप
जीवन की
झूम जाता है दोलायमान
मन…
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3-विपश्यना
सब धुल कर बह जाना है-
धूप आएगी...
फिर बादल बनेंगे...
फिर बारिशें उतरेंगीं...
ठहरेगा क्या ?
धुलकर बह जाना?
धूप का आना?
या
बादल बन जाना?
सवाल किए जाएँ?
या एक जोड़ी आँखें चिपका ली जाएँ,
हर बात का होकर गुज़र जाना देखने के लिए?
या फिर
जज़्ब करने के हुनर को धार दी जाए?
पर शायद ठहरेगा कुछ नहीं
सब बह जाएगा
ना आस रखिए ,ना प्यास रखिए
एक जोड़ी आँखें चिपकाए रखिए
स्वयं को बहाव संग बहाते हुए,
धूप में सुखाते हुए
बारिश में भीगते हुए
देखते रहिए-
बनते हुए..
बिखरते हुए..
धुलते हुए।
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3-पूनम सैनी
1- गुलाब
कोमल मुलायम पंखुड़ियों की तरह
भीनी सी महक लिये,
आँखों की शान्ति और दिल का सुकून।
वो फूल है;
मगर गुलाब का।
समेटे है चुभन, टीस, दर्द।
जब-जब चाह रखोगे छूने की उसे
वह
उड़ेल देगा तुम्हारे अंदर-
अपनी चुभन, टीस, दर्द
अपने काँटों के स्पर्श से।
छीन लेगा शान्ति,सुकून।
मगर फिर देख लेना तुम
उसकी कोमल,मुलायम,महक वाली
पंखुड़ियों की तरफ
जो घिरी है उन्हीं काँटों से।
छोड़ चल देना उन्हीं के बीच
या थोड़ी सी सावधानी,थोड़ा प्यार,थोड़ा एतबार,
बना देगा खास
तुम्हारे संग उसे।
सीख लेना तुम भी
काँटों में महकना।
समझना उसकी विवशता
और विवशता में साहस
फेंक ना देना
हो जाना उसी के तुम;
क्योंकि
फूल है वह,
मगर गुलाब का
2
दर्द की बस्ती
हम भी दर्द की बस्ती में मकान रखते है,
यूँ ही थोड़ी मुस्कुराहटों से पहचान रखते
है।
नकाबों के कारोबार में हमारा भी निवेश है;
लोग कहते है कि हम प्यारी मुस्कान रखते
है।
आमदनी तजुर्बों की और खर्चा प्यार का;
सुख दुःख को हम सदा मेहमान रखते है।
उसके साए में महफूज़ हर शाम,हर सहर,
रहम नज़र सभी पर मेरे भगवान रखते है।
4-डॉ.आशा पाण्डेय
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।
तुम खारे जल की महाराशि,
मैं खारे जल की चंद बूंद ।
तुम गरज रहे निज गौरव पर,
मैं मिटता तट पर आँख मूंद ।
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।
तुम गहरे हो गंभीर जलधि,
मैं गहरे दुःख से बहता हूँ ।
तुम युग-युग से आप्लावित हो,
मैं मिटकर जीवित रहता हूँ ।
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।
तेरी लहरों का कालनृत्य,
लेता है सुख को तुरत छीन ।
मैं हाहाकार मचाकर भी,
बहता नयनों से मौन धीर ।
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।
तुम उमड़ो तो जीवन ले लो,
मैं उमड़ूँ तो दुःख हो व्यतीत ।
तुम शीतल लगते हो केवल,
मैं लेता सबका हृदय जीत ।
हे उदधि,जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध मैं अल्पनीर ।
तुम रत्न भरे रत्नाकर हो,
बस इसी गर्व से रहे फूल !
समृद्धि नहीं जोड़े दिल को,
इसको तुम शायद रहे भूल ।
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।
तुम मोती माणिक देते हो,
कारण इतना ही ! रहे झूम ।
मैं प्रेम रत्न से ओत-प्रोत,
लेता हूँ सबके अधर चूम ।
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध मैं अल्पनीर ।
तेरा मेरा निर्माण सहज,
होता है केवल पानी से ।
पर तुमसे सब भय खाते हैं,
फिर प्रीति बढ़ाते हैं मुझसे ।
हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !
तुम हो अगाध मैं अल्पनीर ।
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2-योद्धा
मैंने फेंक दी है कचरे के डिब्बे में
कुछ शीशियाँ ,
प्लास्टिक के टूटे पुराने डिब्बे ,
पन्नियाँ ,
बच्चों के टूटे ।
मेरी तरह मेरे पड़ोसी ने भी फेंक दिया है
टूटे डिब्बों और फूटी शीशियों को
कूड़ेदान में,
भर गया है कूड़ेदान
हमारे मोहल्ले के अटालों से ।
कंधे पर
बोरी लटकाए
चिंदियां बीननेवाला वह व्यक्ति
खुश हो गया है
भरे कूड़ेदान को देखकर
जैसे भगवान् ने दिया है
आज उसे छप्पर फाड़के ।
वह फैलाता है अपनी बोरी
और चुन-चुन कर डालता है उसमें
फूटे डिब्बे, टूटे ढक्कन गन्दी पन्नियाँ ।
इस चुनने में उसके हाथ में आती हैं
सड़ी चीजें
जिसकी गंध से भर जाती है उसकी नाक
पर उसे मलाल नहीं
इन गन्दी चीजों के हाथ में आने का ।
वह टांग लेता है अपने कंधे पर
भरी हुई बोरी
बड़े यत्न से
और चलता है झूमकर
योद्धा की तरह
ख़ुशी फैली है उसके चेहरे पर
अब वह पराजित करेगा
पूरे दो दिन तक
भूख को ।
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