पथ के साथी

Friday, December 31, 2021

1173-पाठ

 

पाठ

(साल के अंतिम पड़ाव पर पढ़िए 'नवतेज भारती' की अद्भुत प्रेम कविता । पंजाबी से अनुवाद: हरभगवान चावला)

पाठ करते-करते

मैं तुम्हारे साथ बात करने लगती हूँ

पता ही नहीं चलता

पाठ कब सम्पन्न हो जाता है

तुम ख़ुदा से पूछना-

वह मेरा पाठ मंज़ूर कर लेता है?

ख़ुदा कहता है-

सब लोग मेरा पाठ ही करते हैं

काश! पाठ करते-करते

कोई मेरे साथ भी बात करने लगे

'बेचारा'...कहती-कहती ख़ामोश हो गई

रात को फिर सपने में

ख़ुदा ने कहा-

माँग, जो माँगना है

 

तू अंतर्यामी है

तुझे पता है मैं क्या माँगती हूँ

फिर क्यों बार-बार पूछता है?

'शायद भूले-भटके ही

तू उसकी जगह मुझे माँग ले'- ख़ुदा ने कहा ।

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Saturday, December 25, 2021

1172-जनम-जनम की प्रीत

 दोहे-रश्मि विभा त्रिपाठी

1


शेष कामना कुछ नहीं
, क्या माँगूँ अब दान।

प्रेम तुम्हारा है प्रिये, ईश्वर का वरदान॥

2

बाट प्रिये की जोहती, बैठी बारह मास।

उनके बिन दूभर हुआ, अब लेना यहसाँस॥

3

प्रेम तुम्हारा है प्रिये, जीवन का आधार।

तुमें ही तो है बसा, मेरा निज संसार॥

4

कैसे तुम बिन हो प्रिये, अब जीना आसान।

एक तुम्हीं में है बसी, मुझ बिरहन की जान॥

5

प्रेम- कोकिला गा रही, मन- बगिया में गीत।

प्रियवर तुमसे बँध गई, जनम-जनम की प्रीत॥

6

प्रेम सुनहरा जब कभी, चढ़े किसी के अंग।

जीवन भर उतरे नहीं, फिर यह गाढ़ा रंग॥

7

झंझा का अभिमान प्रिय, होगा नष्ट समूल।

अंक छिपा लूँ मैं तुम्हें, हाथ मलेगी धूल॥

8

प्रिय श्रद्धा से चूम लें, मेरा बेसुध माथ।

संजीवनि मानो धरी, प्रभु ने आकर हाथ॥

9

तुम्हें समर्पित हैं प्रिये, मेरे तन-मन-प्राण।

पग-पग पर तुमसे मिला, मुझे पूर्ण परित्राण॥

10

तुम्हें देख जीती रहूँ, तुम मेरी अकसीर।

कण्ठ लगाकरके प्रिये, पिघला देते पीर॥

11

जकड़ नहीं पाए कभी, पीड़ाओं का पाश।

प्रियवर ने सौंपा मुझे, सुन्दर सुख-आकाश॥

12

दिन सौरभ-सौरभ हुआ, महक उठी हर रात।

जबसे हिय-सर में खिला, एक प्रेम-जलजात॥

13

बाधा आन विकल करे, वे उसके ही पूर्व।

भर देते मुझमें प्रिये, साहस एक अपूर्व

14

जब देखूँ, देता जिला, प्रिये तुम्हारा रूप।

मुझको लगती ही नहीं, इस दुनिया की धूप॥

15

वंदन नितप्रति मैं करूँ, जपूँ उन्हीं का नाम।

प्रिय ने सौंप दिए मुझे, अपने सुख-आराम॥

16

ठेल दिया तुमने परे, प्रियवर! पीर-पहाड़।

डूब गया मन मोद में, आई सुख की बाढ़॥

17

मैं बड़भागी हूँ प्रिये, मिला तुम्हारा साथ।

धरती पर पग ना धरूँ, दुख के लगूँ न हाथ॥

18

पाया जबसे है प्रिये, तेरा प्रेम अनूप।

पीर-हिमानी गल गई, तन सहलाती धूप॥

19

जिजीविषा मुझमें भरे, उनका शुभ आशीष।

जहाँ चरण प्रिय के पड़ें, अपना धर दूँ शीश॥

20

और मुझे क्या चाहिए, पाके तुमको मीत।

अधरों से आठों पहर, झरता सुख-संगीत॥

21

प्रेम- बाँसुरी पर प्रिये, जब तुम गाते गान।

मेरा तन-मन झूमता, ऐसी मादक तान॥

22

एक अलौकिक सुरभि से, महका मेरा गेह।

मेरे आँगन झर रहा, प्रिय का निर्मल नेह॥

23

निर्मल नेह-सुधा मिली, मिटी युगों की प्यास।

तुम तृप्ति का स्रोत प्रिये, पूरन मेरी आस॥

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Thursday, December 23, 2021

1171-तीन कविताएँ

 1-कहानी कभी ख़त्म नहीं होती

प्रियंका गुप्ता

 

दादी माँ


अक्सर सुनाया करती थी

बस वही एक कहानी-

एक था राजा, एक थी रानी

दोनों मर गए, ख़त्म कहानी;

पर मैं अक्सर सोचती हूँ

राजा-रानी के मरने से

कहानी ख़त्म कैसे हुई?

उसके बाद भी

चली तो होगी

किसी और राजा और

उसकी रानी की कहानी;

कहानियाँ कभी ख़त्म होती हैं क्या?

हम न चाहें तो भी

उनका चलना

बदस्तूर ज़ारी रहता है

सुनो,

जिस दिन ख़त्म हो गई कहानियाँ

उस दिन ख़त्म हो जाएगी

ये सृष्टि भी;

इसलिए बस चलने देना

रोज़ नई कहानी को

क्योंकि हर कहानी

सृष्टि को बचाए रखने के लिए

उतनी ही ज़रूरी है

जितनी ज़रूरी हैं

तुम्हारी साँसें

ज़िन्दगी के लिए...।

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2-भीकम सिंह 

 

1-कविता का अधिकारी 

 

 सरकारी विभागों में 


हिन्दी भाषा के अधिकारी
 

या कोई आयुक्त जैसे 

उच्च अधिकारी 

अपनी कविता छपवाते हैं 

साहित्यिक समारोहों में 

उसे 

पहनकर आते हैं 

कुछ 

शब्द-चित्र 

टाँककर आते हैं 

क्योंकि 

वे बोल नहीं पाते 

इसलिए 

अवकाश प्राप्ति पर

कविता -

फाड़कर फेंक देते हैं 

या

लिखना छोड़ देते हैं 

फिर उनकी पुस्तकें 

अलमारियों से निकाल 

बारों के साथ 

तोल दी जाती हैं 

खाली अलमारियों में 

उनकी पढ़ी -लिखी बहुएँ 

व्रत-त्योहार 

विधि-विधान की पुस्तकें 

ज़ा देती हैं 

फिर वो अधिकारी 

अपना सिर

दोनों हाथों में पकड़े 

गैराज में 

ढूँढते हैं कविता 

 

 

-0-

 

2-धूप 

 

 

ताज़ा - सी दिखी

अहाते के पास 

सुबह की कोख से 

ज्यों गिरा हो

हर्षोल्लास 

फिर से आज 

 

आलस की 

चादर उतारी 

अँगड़ाई की मुद्रा में 

बाहें पसारी 

और लपेट ली सारी

माघ की धूप 

Tuesday, December 21, 2021

1170-बंधन

कृष्णा वर्मा 


बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें         

लेकिन भींच लेता हूँ मुठ्ठी में 

कसकर सोच की लगाम 

चाहे कितना भी दबा लूँ 

अंतस् की आग को,   

फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से 

थक गए हैं मेरे हवास 

लगा-लगाकर होंठों पर ताला 

अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से 

जिसे कब का बेमायने कर दिया है

तुम्हारी हठधर्मियों ने  

चाहकर भी मन कस नहीं पाता  

ढीली हुई रिश्तों की दावन को 

सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता

ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द 

तुम्हारे ग़ुरूर को बेंधने को 

मेरी चुप्पियाँ 

तुम्हारी अना की जीत नहीं 

अपितु गृह कुंड में शांति की आहुति है 

अच्छा होगा जो अब भी

थाम लो तुम 

अपनी कुंद सोच के क़दम

ऐसा न हो रह जाए कल

तुम्हारी ज़िद की मुठ्ठी में

केवल पछतावा। 

 

 

Monday, December 20, 2021

1169- अहम् मृत्यु

 अहम् मृत्यु

मूल ओड़िआ रचना - श्री अमरेश विश्वाल(कवि एवं उपन्यासकार)

अनुवाद -अनिमा दास

 

मैं एवं मृत्यु


हैं समीपस्थ...

मानो वह हो आरक्षी

एवं मैं होऊँ अपराधी।

 

एक यात्री वाहन में

हम बैठें हु हैं

अति निकटस्थ।

 

मैं खोज रहा हूँ

गतिशीलता

जीवन के गवाक्ष में।

वह पढ़ रही है

समाचार- पत्र का

अंतिम पृष्ठ...।

 

 

मैं नहीं जानता


क्यूँ ठहर गया

यह शकटाकृति वाहन

एक पर्णकुटी के समक्ष

जहाँ थी केवल निराट शून्यता।

 

जहाँ था स्वच्छ प्रांगण में

अर्धमृत तुलसी का एक पौधा

एवं एक जोड़ी

जीर्ण-शीर्ण खड़ाऊँ।

 

जैसे किसी ने प्राचीन धर्मग्रन्थ को

घृणाजल से किया था सिक्त

जिसने किया था आबद्ध

उस कुटी को

काष्ठ सा हो रहा था प्रतीत

एवं उस पर हुआ था उत्कीर्ण

प्राक-कालीन युगल पदचिह्न ।

 

मैं था अत्यंत तृषित

किंतु निश्चिन्त मृत्यु थी

असीम निद्रा में

उसने दिये मुझे

दो चषक पेय।

 

 

मैंने कहा-

यदि देना है तो दो

पाप से पूर्ण अँजुरी,

दो सजल किंतु हर्षित

चक्षु युगल

एवं आलिंगनबद्ध द्वय देह 

 

मेरे लिए थी मृत्यु की

एक संक्षिप्त युक्ति–

तपस्विनी_ सी मृत्यु के अधर पर

थी अल्प स्मित

उसने कहा....

तुम , असहाय मानव!

जिस मदमत्त उन्मुक्त जीवन

से करते हो अटूट प्रेम

उससे तो मृत्यु ही है श्रेयस्कर–

उससे तो मृत्यु ही है श्रेयस्कर–

 

 

Saturday, December 18, 2021

1168-प्रीत की माला

 डॉ. सुरंगमा यादव


वैधव्य - प्रसार


देखकर आसपास
सोच में पड़ा मन
क्या रखा नहीं इन्होंने
करवा व्रत !
या चूक हुई
विधि-विधान में
जो जीवन बना भार
पति की उम्र पर
क्यों लगा ग्रहण?
ग्रामीण स्त्रियाँ
रीति-रिवाज और आस्था
दोनों ही निभातीं शतशः
फिर भी क्यों रूठ जाता
इनका भी सौभाग्य !
प्रश्न उठा बार-बार
व्रत को आयु से जोड़ना
छलावा तो नहीं
स्त्री मन के साथ?
झटककर य प्रश्न
सोचने लगा मन-
व्रत के बहाने चलो
आओ गूँथें हम
एक-दूजे लिए
प्रीत की माला।
2
जिंदगी जब तक खुद न रूठ जा तुमसे
तुम जिंदगी से कभी मत रूठना
सीधी राहों से ही नहीं
कभी -कभी रूट डायवर्ट करके भी
जिंदगी मंजिल तक पहुँचाती है।

-0-

Friday, December 17, 2021

1167-हम... तुम... मैं

 

हम... तुम... मैं

अनिमा दास (कटक, ओड़िशा)

  


नदी के इस तट पर हम... उस तट पर प्रेम...धूल से भरा

अस्तमित सूर्य... अरुणाभ...एवं कोमल स्पर्श स्वर्णिम वीची का

इस तट पर दो उदास प्रतिछवियाँ...बिंबित अल्प श्याम-जल पर

दोनों की अँजुली में श्वेत पुष्प एवं विस्तारित आंशिक कुहर।

 

आकाश की सीमा बढ़ती जा रही थी देहद्वय को छूते हु

मौनता थी उस तट पर भी...हमें नहीं था जाना भूलते हु

उड़ते पंखों की पीठ पर रखकर अतीत की स्मृतियों को...

नहीं छूना था...नहीं छूना था वर्तमान को एवं नीतियों को...

 

वाहित हो रही थी सांध्य द्युति में एक रिक्त कहानी

गोलाकार परिधि में भर रहा था उमस एवं श्वास अभिमानी

"कहो!" कहकर उद्विग्न हुईं उर्मियाँ कि सिक्त हुआ दृगंचल

आकाश के आलिंगन में मेघों का अवकुंचन व स्पर्श तरल

 

 

नदी के इस तट पर कोई चिह्न नहीं..किंतु वह तट हुआ तमस्वी

'हम' हुआ पृथक...'तुम' के भग्नावशेष में 'मैं' रहा बन तपस्वी ।

Thursday, December 16, 2021

1166

 1-सपना 

भीकम सिंह 

 


ना मैं साहिर
 

ना इमरोज़ 

पर ढूँढता हूँ 

हर रोज 

ख्वाबों में 

ख्यालों में 

अमृता  -

उसका सागर 

जहाँ वह

डूबने की हद

पार कर गई 

 

प्रेम के शब्द 

और

उनकी खुशबू 

मर्यादा के अर्थों को 

देकर

नई जुस्तजू

पुराने-से 

पड़ गए 

रिश्तों में 

नये आयाम 

धर गई 

 

मैं 

आसक्ति को ओढ़े 

सोच रहा था 

तट पर बैठे 

तभी एक

उच्छृंखल-सी लहर

पहने हुए 

दोपहर 

टूट कर गिरी 

और

तर कर गई 

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2-अलसाई सुबह

 अंजू खरबंदा



आज का दिन

कुछ आलस से भरा है

आलस थोड़ा तन का

आलस थोड़ा मन का

जिंदगी के चलते रहेंगे लफड़े ।

 

देह चाहती आज आराम

जी नही करूँ कुछ काम

अलसाई-सी सुबह

पड़ी हूँ निष्प्राण

बिस्तर पर आलस से जकड़े ।

 

आज अच्छा लग रहा है

बिखरा घर

फैले कंबल

सलवटों से भरी चादर

कुरसी पर रखे बिन तह किए कपड़े ।

 

टेबल पर रखा चाय का कप

खुला अखबार

नि:शब्द डायरी का पन्ना

मुस्कुराता हुआ पेन

अंजुम त्याग दिए आज सारे पचड़े 

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