पथ के साथी

Thursday, November 22, 2012

वह परिन्दा है



सुदर्शन रत्नाकर

खुली खिड़की से उड़ कर
वह अंदर आया
मैंने पकड़ कर सहलाया तो
वह सिमट गया

मेरी हथेली पर रखे दाने
चोंच भर खा गया
मेरी आँखों में उसने
प्यार का समन्दर देखा
और उड़ना भूल गया

मैं उसे फिर सहलाऊँगी
और -दोनों हाथों से उड़ाऊँगी
वह उड़ तो जाएगा
पर कल फिर आएगा
दाना खाएगा
उड़ना भूल जाएगा

वह रोज़ ऐसा करेगा
खुली खिड़की से आएगा
छुअन का एहसास करेगा
सिमटेगा
खाएगा

वह मेरे हाथों के स्पर्श को एहसासता है
वह मेरे प्यार की भाषा समझता है
वह परिन्दा है
वह सब जानता है
इन्सान नहीं
जो प्यार की गहराई को नहीं समझता
जो अपनों को भूल
अपने लिए जीता है
         और
अवसर मिलते ही
उड़ जाता है
कभी लौट कर आने के लिए
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