कविता - मैं ....?
पुष्पा मेहरा
मैं क्षिति-
माटी-तन ले-
रूप-रूप डोलूँ ।
मैं जल-
निर्मल सरिता बन-
तृषाकुल की तृषा बुझाऊँ
पावन- गंगा सी बह कर
हर-जन को निर्मल कर दूँ।
मैं अग्नि-
जठराग्नि तृप्त करना चाहूँ,
अगर बनना ही पड़े ज्वाला मुझको
धू-धू जला -
कुवासनाओं का जंगल राख करूँ।
मैं नीलम-नभ-
मुक्त-गगन पाना चाहूँ,
ले पक्षियों से
पंख उधार
बार-बार ऊँचे डोलूँ
फिर-फिर धरती पर आऊँ- जाऊँ।
मैं गतिवान पवन-
साँसों के सरगम में रची-बसी,
वन-वन डोलूँ,
सघन-विरल का भेद न जानूँ
घर,मकान,
झोंपड़-पट्टी में वास करूँ ।
नहीं जानती क्या हूँ मैं!
बोध मुझे केवल इतना-
लिये मशाल अग-जग घूमूँ।
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एस पी सती
1-माँ
माँ हम ढूँढते हैं पहाड़ पर सौंदर्य
तुम पहाड़ पर जीवन तलाशती हो
लोग पहाड़ का मतलव समझाते हैं
यहाँ की चोटियाँ,घाटियाँ,गाड-गदीने *
माँ हम ढूँढते हैं पहाड़ पर सौंदर्य
तुम पहाड़ पर जीवन तलाशती हो
लोग पहाड़ का मतलव समझाते हैं
यहाँ की चोटियाँ,घाटियाँ,गाड-गदीने *
(नदिकायें-नाले -बरसाती झरनें)
पर तुम्हारे लिए तो
पहाड़ सिर्फ पहाड़ हैं
दुश्वारियों के पहाड़
हम बह गए मैदानों की ओर
तुम घिरी चट्टानों से हर ओर
हम बिछ गए मैदानों में
तुम्हे सिमटी छोड़ कंदराओं में
हम उग आए मैदानों में
तुम ठूँठ-सी खड़ी पहाड़ों पर
तुम बाट जोहती रह गयी
हम बस सोचते रह गए
माँ पहाड़ पर विकास की चोटी जितनी ऊँची होती जाती है,
तुम्हारी कमर उतनी ही झुकती जाती है
जाने ऐसा क्यों है...जाने ऐसा क्यों है?
ना जाने क्यों.........।
दुश्वारियों के पहाड़
हम बह गए मैदानों की ओर
तुम घिरी चट्टानों से हर ओर
हम बिछ गए मैदानों में
तुम्हे सिमटी छोड़ कंदराओं में
हम उग आए मैदानों में
तुम ठूँठ-सी खड़ी पहाड़ों पर
तुम बाट जोहती रह गयी
हम बस सोचते रह गए
माँ पहाड़ पर विकास की चोटी जितनी ऊँची होती जाती है,
तुम्हारी कमर उतनी ही झुकती जाती है
जाने ऐसा क्यों है...जाने ऐसा क्यों है?
ना जाने क्यों.........।
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2-संस्कार - एस पी सती