हम... तुम... मैं
अनिमा दास (कटक, ओड़िशा)
नदी के इस तट पर हम... उस तट पर प्रेम...धूल से भरा
अस्तमित
सूर्य... अरुणाभ...एवं कोमल स्पर्श स्वर्णिम वीची का
इस
तट पर दो उदास प्रतिछवियाँ...बिंबित अल्प श्याम-जल पर
दोनों
की अँजुली में श्वेत पुष्प एवं विस्तारित आंशिक कुहर।
आकाश
की सीमा बढ़ती जा रही थी देहद्वय को छूते हुए
मौनता
थी उस तट पर भी...हमें नहीं था जाना भूलते हुए
उड़ते
पंखों की पीठ पर रखकर अतीत की स्मृतियों को...
नहीं
छूना था...नहीं छूना था वर्तमान को एवं नीतियों को...
वाहित
हो रही थी सांध्य द्युति में एक रिक्त कहानी
गोलाकार
परिधि में भर रहा था उमस एवं श्वास अभिमानी
"कहो!" कहकर उद्विग्न हुईं उर्मियाँ कि सिक्त हुआ दृगंचल
आकाश
के आलिंगन में मेघों का अवकुंचन व स्पर्श तरल
नदी
के इस तट पर कोई चिह्न नहीं..किंतु वह तट हुआ तमस्वी
'हम' हुआ पृथक...'तुम' के भग्नावशेष में 'मैं' रहा बन
तपस्वी ।