पथ के साथी

Monday, May 25, 2020

993-नवगीत-कविताएँ

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-रिश्ते रेतीले ( नवगीत)

बिसरा दो
रिश्ते रेतीले
मन के पाहुन को
क्या बहकाना
तुम गढ़ लो कोई
सभ्य बहाना
पल -दो पल
ऐसे भी जी लें।

अनीति-नीति का
मिट रहा अन्तर
पुष्प बनो या
हो जाओ पत्थर ;
          अर्थहीन सब
          सागर- टीले ।

मुकर गई यदि
नयनों की भाषा
साथ क्या  देगी
पंगु अभिलाषा;
          बूँद-बूँद पीड़ा-
को पी लें ।
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2-अधर -सुगन्ध(नवगीत)

बादलों को चीरकर
सलज्ज कुमुदिनी-सी
लगी
आँख चाँद की  सजल
डुबोकर पोर-पोर
दिगन्त का हर छोर
हुआ
हृदय की तरह तरल ।
अधर-सुगन्ध पीकर
प्रीति की रीति बने
छलक
मधुर चितवन चंचल ।
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3-जलते जीवन में ( कविता)

जलते जीवन में ज्वाला का  रहा अभाव नहीं
फिर भी थककर पीछे लौटे, अपने पाँव नहीं।

नीड़ बनाने का सपना ले, जंगल में भटके
बसी हुई थी जहाँ बस्ती, वहाँ अब गाँव नही।

पलकर सदा आस्तीन में   वे, विषधर सिद्ध हुए
फिर भी उनके डँसने का हो सका प्रभाव नहीं ।

जय-पराजय , फूल-शूल मुझे, कभी न भरमाते
हार-हारकर भी जीवन का  हारा दाँव नहीं ।

बस्ती-बस्ती आग ज़ली है, चूल्हे भी जागे
लाखों पेटों के फिर भी, बुझ सके अलाव नहीं।

हमने ही थे पेड़ लगाएनदिया के तट पर
आज हमें ही मिल पाई है, उनकी छाँव नहीं ।
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4-किसके लोग ?( कविता)

यह शहर नहीं है पत्थर का ,
पत्थर दिल ना इसके लोग
आज उसी के पीछे चलते,
साथ नहीं थे जिसके लोग।

कुछ को इज़्ज़त , कुछ को नफ़रत,
बिन माँगे यहाँ मिल जाती
आज वही सब  सुधा बाँटते,
कल तक थे जो विष के लोग।

चौराहों पर सज़ा चोर को,
देते रहे  यहाँ पर चोर
आए थे जो खेल देखने,
चुपके से वे खिसके लोग।

राह दिखाने वाले बनकर,
लूट ही लेते राहों में
इन्होंने अवसर को पूजा,
थे ये कब और किसके लोग।
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