1.
सभाओं में बना करते थे
वे प्राय: अध्यक्ष
अब ठूँठ बनकर रह गए ।
2
गुमराहों को है गुरूर
नई पीढ़ी को सिर्फ़ वे ही
रास्ता दिखाएँगे ।
3
इतना ऊँची उड़ी
मॅंहगाई की पतंग
कि जीवन–डोर लील गई ।
4.
वे फैलाकर कड़वाहट
पढ़ाते एकता का पाठ
सिर्फ़ मूर्खो से चलती
उनकी हाट ।
5. आम आदमी हुआ हलाल
आग लगाकर जमालों दूर खड़ी
बजा रही है गाल ।
6.
तोतों का जुलूस निकाल
जागरण लाएँगे,
जनता को इस तरह गूँगा बनाएँगे ।
7
जो कुछ पाया, वही चबाया
चारा नहीं बचा कुछ
तब बेचारा कहलाया ।
8
जनता है हैरान
कल जिसने जोड़े थे
घर–घर जाकर हाथ
वहीं खींचता कान ।
9
राजनीति में अगर
अपराधी नहीं आएँगे
तो अपराध रोकने के
गुर कौैन बताएँंगे ?
10 स्वामी जी यजमान के लिए
संकटमोचन यज्ञ करा रहे हैं
और खुद तिहाड़ जा रहे हैं ।
11.
समाधान हो जब असम्भव
आयोग बिठाइए
पेचीदे मामले
बरसों तक लटकाइए ।
12
वे अपराधियों को इस बार
पार्टी से निकालेंगे
लगता है सारी कीचड़
किसी गंगा में डालेंगे ।
13
बाढ़ भूचाल ,सूखा
सदा सब आते रहें
स्वरोजगार के नित नए
अवसर दिलवाते रहें ।
14.
जब से वे
बाजारू लिखने लगे हैं
प्याज की तरह महॅंगे बिकने लगे हैं ।
15.
सफाई अभिमान में उन्होंने
कमालकर दिखाया
अपने घर का कूड़ा
पड़ोसी के घर के आगे फिंकवाया ।
16.
नए डॉक्टर हैं
तभी अनुभव पाएँगे
जब दो–चार को
परलोक की सैर कराएँगे ।
17.
इस साल बड़ा पुरस्कार
उन्होंने पाया
समिति के सदस्यों को
सिर्फ़ तीन चौथाई खिलाया ।
18. अखबार बालों पर नेताजी
भेदभाव करने का कीचड़
उछाल रहे है,
सुना है–
अपना अखबार निकाल रहे हैं ।
19.
जिनके पैरों के निशान
दफ्तर की गुफा में
ले जाते हैं
वे कभी वापस नहीं आते है ।
20.
मजहब की छुरी
जाति भेद का कॉटा
जितना चाहा, उतना बॉंटा ।
21.
मुल्क को समझ रोटी
` बहुत से खा रहे हैं
खाने से चूके जो
सिर्फ़ वे ही चिल्ला रहे हैं ।
22.
वे बयानबाजी में
बहुत आगे निकल रहे हैं
जो कल कहा था,
उसे आज बदल रहे है ।
23.
जब हो खाली
काम न धंधा
रसीद छपवा
मॉंग ले चन्दा ।
24.
सुर्खियों में रहे रोज नाम
कीजिए पागलपन की बातें
चलाइए कहीं घूँसे कहीं लातें
तोड़िए सब रिश्ते–नाते ।
25.
भ्रष्टाचार बुलेट प्रूफ हो गया
मारने पर भी
रक्तबीज– सा जिन्दा हो गया ।
26.
वे परिवर्तन के दौर से
गुजर रहे हैं
रात–दिन अपनों का
घर भर रहे हे।
27.
कल तक
दूसरों के पैसों पर मौज
कर गया
आज अपना पैसा खाया
तो दर्द हुआ, मर गया ।
28.
फाइल
अंगद का पॉंव बन गई
बिना खाए–पिए
हिलती नहीं,
लाख ढूँढों
सामने रखी होने पर भी
मिलती नहीं ।
29.
साहब जब से
सूखी सीट पर आए हैं
तब से मजनूँ की तरह
दुबलाए हैं ।
30.
सुबह उठते हैं
कीर्तन करते हैं
दफ्तर में जाकर
जितना होता है चरते हैं ।
31.
तिकड़मी को देखकर
खुदा भी हैरान है
शैतान से भी बढ़कर
यह कौन शैतान है ।
32. डिग्रियों का बोझ
पेट है खाली
पीठ झुकी
सामने लम्बी अँधेरी गली ।
33. उम्र भर चलते रहे
पड़ाव
मंजिल का भरम खड़ाकर
छलते रहे ।
34-आग में
गोता लगाती बस्तियॉं
इस सदी की
यह निशानी बहुत खूब ।
35
. आओ लिख लें
नाम उनका दोस्तों में
ताकि वे भी कल
धोखा दे सकें ।
36.
इमारतों का
रोज जंगल उग रहा
मेमने–सा आदमी
हलकान है
जाए कहॉं ?
37.
माना कि
झुलस जाएँगे हम
फिर भी सूरज को
धरती पर लाएँगे हम ।
38. बारूद के ढेर पर खड़ी
मुस्कराती है मौत
एक दिन धरती पर
सिफर् श्मशान रह जाएँगे ।
39. डरी–डरी आँखों में
तिरते अनगिन आँसू
इनको पोंछो
वरना जग जल जाएगा ।
40.
उम्र तमाम
कर दी हमने
रेतीले रिश्तों के नाम ।
41.
औरत की कथा
हर आँगन में
तुलसी चौरे–से
सींची जाती रही व्यथा ।
42.
स्मृति तुम्हारी
हवा जैसे भोर की
अनछुई , कुँआरी ।
43.
ओढ़ न पाए
चार घड़ी हम
ज्यों की त्यों
धर दीनी हमने
आचरण की फटी चदरिया ।
44.
डॉंक्टर झोलाराम
जब से इलाज करने लगे हैं
जिन्हें बरसों जीना था
बे–रोक–टोक मरने लगे हैं ।
आबादी घटाकर
पुण्य कमा रहे हैं
बिना टिकट बहुतों को
स्वर्ग भिजवा रहे हैं ।
45.
एक चादर थी अभावों की
हमारे पास
वह भी खो गई ।
इतने दिनों में सूरतें सब
बहुत अजनबी
हो गईं ।
46-
घर से चले थे हम
बाहर निकल गए,
अब तो दस्तकों के भी
अर्थ बदल गए ।
पथ के साथी
Saturday, July 14, 2007
कमीज
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
महीने की आखिरी तारीख! शाम को जैसे ही पर्स खोलकर देखा, दस रुपए पड़े थे। हरीश चौंका, सुबह एक सौ साठ रुपए थे। अब सिर्फ़ दस रुपए बचे हैं?
पत्नी को आवाज दी और तनिक तल्खी से पूछा, ‘‘पर्स में से एक सौ पचास रुपए तुमने लिए हैं?’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं लिए।’’
‘‘फिर?’’
‘‘मैं क्या जानूँ किसने लिए हैं।’’
‘‘घर में रहती हो तुम, फिर कौन जानेगा?’’
‘‘हो सकता है किसी बच्चे ने लिए हों।’’
‘‘क्या तुमसे नहीं पूछा?’’
‘‘पूछता तो मैं आपको न बता देती, इतनी बकझक क्यों करती।’’ हरीश ने माथा पकड़ लिया। अगर वेतन मिलने में तीन–चार दिन की देरी हो गई तो घर में सब्जी भी नहीं आ सकेगी। उधार माँगना तो दूर, दूसरे को दिया अपना पैसा माँगने में भी लाज लगती है। घर में मेरी इस परेशानी को कोई कुछ समझता ही नहीं!
‘‘नीतेश कहाँ गया?’’
‘‘अभी तो यहीं था। हो सकता है खेलने गया हो।’’
‘‘हो सकता है का क्या मतलब? तुम्हें कुछ पता भी रहता है या नहीं’’, वह झुँझलाया।
‘‘आप भी कमाल करते हैं। कोई मुझे बताकर जाए तो जरूर पता होगा। बताकर तो कोई जाता नहीं, आप भी नहीं’’,पत्नी ठण्डेपन से बोली।
इतने में नीतेश आ पहुँचा। हाथ में एक पैकेट थामे।
‘‘क्या है पैकेट में?’’ हरीश ने रूखेपन से पूछा। वह सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
‘‘पर्स में से डेढ़ सौ रुपए तुमने लिये?’’
‘‘मैंने...लि्ये’’, वह सिर झुकाए बोला ।
‘‘किसी से पूछा?’’ हरीश ने धीमी एवं कठोर आवाज में पूछा।
‘‘नहीं’’,वह रूआँसा होकर बोला।
‘‘क्यों? क्यों नहीं पूछा’’, हरीश चीखा।
‘‘....।’’
‘‘चुप क्यों हो? तुम इतने बड़े हो गए हो। तुम्हें घर की हालत का अच्छी तरह पता है। क्या किया पैसों का’’, उसने दाँत पीसे ।
नीलेश ने पैकेट आगे बढ़ा दिया- “पंचशील में सेल लगी थी। आपके लिए एक शर्ट लेकर आया हूँ। कहीं बाहर जाने के लिए आपके पास कोई अच्छी शर्ट नहीं है।’’
‘‘फि...फिर...भी...पूछ तो लेते ही’’, हरीश की आवाज की तल्खी न जाने कहाँ गुम हो गई थी। उसने पैकेट की सीने से सटा लिया।
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महीने की आखिरी तारीख! शाम को जैसे ही पर्स खोलकर देखा, दस रुपए पड़े थे। हरीश चौंका, सुबह एक सौ साठ रुपए थे। अब सिर्फ़ दस रुपए बचे हैं?
पत्नी को आवाज दी और तनिक तल्खी से पूछा, ‘‘पर्स में से एक सौ पचास रुपए तुमने लिए हैं?’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं लिए।’’
‘‘फिर?’’
‘‘मैं क्या जानूँ किसने लिए हैं।’’
‘‘घर में रहती हो तुम, फिर कौन जानेगा?’’
‘‘हो सकता है किसी बच्चे ने लिए हों।’’
‘‘क्या तुमसे नहीं पूछा?’’
‘‘पूछता तो मैं आपको न बता देती, इतनी बकझक क्यों करती।’’ हरीश ने माथा पकड़ लिया। अगर वेतन मिलने में तीन–चार दिन की देरी हो गई तो घर में सब्जी भी नहीं आ सकेगी। उधार माँगना तो दूर, दूसरे को दिया अपना पैसा माँगने में भी लाज लगती है। घर में मेरी इस परेशानी को कोई कुछ समझता ही नहीं!
‘‘नीतेश कहाँ गया?’’
‘‘अभी तो यहीं था। हो सकता है खेलने गया हो।’’
‘‘हो सकता है का क्या मतलब? तुम्हें कुछ पता भी रहता है या नहीं’’, वह झुँझलाया।
‘‘आप भी कमाल करते हैं। कोई मुझे बताकर जाए तो जरूर पता होगा। बताकर तो कोई जाता नहीं, आप भी नहीं’’,पत्नी ठण्डेपन से बोली।
इतने में नीतेश आ पहुँचा। हाथ में एक पैकेट थामे।
‘‘क्या है पैकेट में?’’ हरीश ने रूखेपन से पूछा। वह सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
‘‘पर्स में से डेढ़ सौ रुपए तुमने लिये?’’
‘‘मैंने...लि्ये’’, वह सिर झुकाए बोला ।
‘‘किसी से पूछा?’’ हरीश ने धीमी एवं कठोर आवाज में पूछा।
‘‘नहीं’’,वह रूआँसा होकर बोला।
‘‘क्यों? क्यों नहीं पूछा’’, हरीश चीखा।
‘‘....।’’
‘‘चुप क्यों हो? तुम इतने बड़े हो गए हो। तुम्हें घर की हालत का अच्छी तरह पता है। क्या किया पैसों का’’, उसने दाँत पीसे ।
नीलेश ने पैकेट आगे बढ़ा दिया- “पंचशील में सेल लगी थी। आपके लिए एक शर्ट लेकर आया हूँ। कहीं बाहर जाने के लिए आपके पास कोई अच्छी शर्ट नहीं है।’’
‘‘फि...फिर...भी...पूछ तो लेते ही’’, हरीश की आवाज की तल्खी न जाने कहाँ गुम हो गई थी। उसने पैकेट की सीने से सटा लिया।
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