पथ के साथी

Saturday, July 23, 2011

विदा की गरिमा

[दुनिया की भीड़ में ठगी खड़ी सी,अपने अंत को पुकारती एक वृद्ध कातर आवाज ने मन को बहुत विचलित कर दिया, अन्दर ही अन्दर आज इतना टूटी हूँ कि मन में एक संकल्प बोया है. ]
मंजु मिश्रा

मैं अब कभी,
किसी को, सौ बरस
जीने का आशीष
नहीं दूँगी !
यह आशीष नहीं
एक अभिशाप है,
एक सजा, जो
काटे नहीं कटती.
हर दिन
अपनी मौत की
कामना करते
कैसे रेशा-रेशा
हो कर उधड़ते हैं
एक एक कर
सारे रिश्ते !
ना तन में शक्ति,
ना मन में,
सब कुछ
बिखरा, बिखरा,
छूटता -सा,
टूटता- सा ..
तब लगता है -
नाहक ही
जीवन भर इन
रिश्तों को ढोया
बीज -बीज बोया .
हे ईश्वर !!
जोड़ती हूँ हाथ
बस इतनी रखना
मेरी बात,
जब तक
शरीर समर्थ है
जियूँ ,
फ़िर विदा देना
सम्पूर्ण गरिमा के साथ
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