रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
निर्वसन पहाड़
कट गए जंगल
न जाने कहाँ
दुबकी जलधारा
खग-मृग भटके ।
2
झीलें है सूखी
मिला दाना न पानी
चिड़िया है भटकी
आँखें हैं नम
लुट गया आँगन
साँसें भी हैं अटकी ।
घाटी भिगोते
रहे घन जितने
वे परदेस गए
रूठ गए वे
निर्मोही प्रीतम -से
हुए कहीं ओझल ।
4
छाती चूर की
चट्टानों की भी ऐसे
पीड़ा दहल गई ।
विलाप करे
दर-दर जा छाया
गोद हो गई सूनी ।
-0-