पथ के साथी

Sunday, July 2, 2023

1339-चार रचनाकार

 

1- शशि पाधा

मन से संवाद

 


दर्पण ने पूछा

   **

दर्पण ने पूछा  ---

कहाँ  झाँकते हो ?

किसे ढूँढते  हो ?

 

मुझे  चुप देख

हँस  कर कहा ---

तुम तो वही हो

फ़र्क  बस  इतना

कल तक आदमकद थे

आज बौने हो गये

 

परछाईं ने पूछा ------

किसे ढूँढते  हो ?

किसे नापते हो ?

मुझे चुप देख

हँस  कर कहा ---

तुम तो वही हो

फ़र्क बस इतना

कल तक थे पूरे

आज पौने हो गए

 

जग  ने  कहा  ---

क्या सोचते हो

क्या तोलते हो

मुझे चुप देख

हँस कर कहा

तुम  तो वही हो

फ़र्क बस इतना

कल तक बड़े थे

आज छौने हो गये

चाबी भरे तुम

खिलौने हो गये

-0-

2-डॉ. शिप्रा मिश्रा


1

चले गए

सब चले गए

जाने दो चले गए

अच्छा हुआ चले गए

क्या करना जो चले गए

 

अब मैं आराम से खाऊँगी

अपने हिस्से की रोटी

पहले तो एक ही रोटी के

हुआ करते थे कई-कई टुकड़े

 जाने दो चले गए

बहुत अच्छा है चले गए

 

उनके पोतड़े धोते- धोते

घिस गईं थीं मेरी ऊँगलियाँ

अब तो इन उँगलियों पर

जी भर के करूँगी नाज

 चले गए तो चले गए

 

पूरे बिस्तर पर सोऊंँगी अकेली

अब गीले- सूखे का झंझट न होगा

आराम से पसर कर बदलूँगी

सारी रात सुकून चैन की करवटें

 जाने दो जो चले गए

 

बनाऊँगी ढेर सारी पकौड़ियाँ

और रोज एक नया पकवान

जो खा न पाए थे अब तक

बचते ही न थे थोड़े से भी

 चले गए जाने दो

 

और हाँ..सिला लेंगे एक सुन्दर सी

मखमली जाकिट फूलों वाली

और पैरों के पाजेब भी

छमकती रहेंगे घुँघरू मेरे पाँव में

 चले गए जाने दो चले गए

 

कह देना कभी लौट आएँ तो

इसी चौखट पर काटना है उन्हें भी

अपने हिस्से का वानप्रस्थ

जहाँ वे छोड़ गए हैं अपनी बूढ़ी माँ को

 चले गए जाने दो चले गए

 

इसी चौखट पर नरकंकाल बन

अगोरती रहूँगी अपने पड़पोतों को

मेरी आँखों को तृप्त करने कभी तो आएँगे

उस दिन मेरी एक नहीं कई आँखे होंगी

 चले गए तो चले गए

 

नहीं मिलेंगी तब उनके हिस्से की लकड़ियाँ

ना उन्हें वन मिलेंगे जिसे छोड़ गए

सूखने, मुरझाने, जलने, मरने के लिए

मिलेंगे केवल आच्छादित बरगद की शाखाएँ

 चले गए जाने दो चले गए

-0-

 2- अनारक्षित डिब्बा

 

भीड़ में जैसे -तैसे

स्वयं को ढकेलती

बेटे की पकड़े उँगलियाँ

और बिटिया को

गोद में थामे,

दूसरे हाथ से

चेन की जगह

सेफ्टीपिन लगे

चार- चार बैगों को

लगभग घसीटते

भारत की एक

तथाकथित

शिक्षित, सशक्त महिला

अपने जीर्ण-शीर्ण

अस्तित्व को तलाशते

एक अनारक्षित डिब्बे में

अकेली जूझ रही थी

 

न आगे बढ़ने की

कोई गुंजाइश

न पीछे उतरने का

अप्रत्याशित विकल्प

 

पीछे से लगातार

दारू से भभकते बदबू

और पसीने में सने

एक बुजुर्ग का

ब्लाउज की पीठ पर

खुरदरी उँगलियों से

दिल का निशान बनाना

उसके दिल-दिमाग में

निशान के साथ -साथ

एक ख़ौफनाक मंजर भी

आँखों के सामने

उभर आता है..

 

जलती निगाहों से

पीछे मुड़कर देखा उसने -

"क्या बदतमीजी है!"

लेकिन

उस बुजुर्ग की आँखों में

शर्म के बदले

एक वीभत्स नंगापन ही

तैरता नज़र आया

 

भीड़ में धक्के खाती

जैसे-तैसे थकी- हारी

बर्थ के पास पहुँची

सज्ज-न से दिखने वाले

एक व्यक्ति ने

स्वयं खड़े होकर

बच्ची के साथ उसे

बैठ जाने का इशारा किया

उसके पत्थर जैसे

भारी कलेजे में

थोड़ी राहत-सी हुई

और

मन ही मन उसने

उदार सज्जन को

धन्यवाद दिया

 

अगला स्टेशन आते ही

उतरे कुछ लोग

धक्का - मुक्की, ठेलमठेल

कम हुई थोड़ी

खड़े सज्जन को भी

निश्चिंत होकर

बैठने की थोड़ी-सी

जगह मिल गई

 

बैठे लोगों में

छिड़ चली थी एक

निठल्ली तर्कहीन

राजनीतिक बहस

उदार सज्जन भी

अपने अधजल

राजनीतिक ज्ञान को

छलकने से रोक न सके

 

ट्रेन पूरी रफ्तार से

चल पड़ी थी

कुछ देर बाद ही

महिला ने महसूस किया

एक अनधिकृत स्पर्श

और ढेरों चिकोटियाँ

उदार सज्जन शायद

अपनी उदारता का

कुछ मोल चाहते थे;

लेकिन

महिला को यह मोल

स्वीकार्य नहीं हुआ

यहाँ क्रिया के बराबर

और उसके विपरीत

अगणित प्रतिक्रियाएँ

तमतमाहट के साथ हुईं

बाकी लोग भी

अनायास चौकन्ने हो गए

पूरे डिब्बे में

एक अजीब सा सन्नाटा

धुँधलके की तरह

कुछ देर तक छाया रहा

 

उदार सज्जन

अपना तिरस्कार

झेल नहीं सके

और..

अगला स्टेशन आते ही

लपककर नीचे उतर गए

जैसे किसी थानेदार ने

उनकी चोरी पकड़ ली हो

 

गंतव्य आते ही

तथाकथित

शिक्षित, सशक्त महिला

देश के स्वर्णिम भविष्य की

उँगलियाँ पकड़े,

अंक में मातृशक्ति को

सुरक्षित, संरक्षित करते हुए

श्रम संचित पूँजी वाले

सेफ्टीपिन लगे बैग

बेरहमी से घसीटते

रिक्शे की तलाश में

भीषण गर्मी और धूप में

तर-बतर, पस्त-त्रस्त

बढ़ी जा रही थी

 

उसे मालूम है कि

यूँ ही परिक्रमा

करती रहेगी सदियों तक

पौरुष- सम्पन्न वर्चस्व

और व्यवस्था की..

 

महिला सशक्तीकरण का

इससे बेहतर उदाहरण

भला और क्या हो सकता है!

-0-

3-हरदी गुरदी / डॉ.जेन्नी शबनम

 


 

 

कभी-कभी जी चाहता है  

इतना जिऊँ इतना जिऊँ इतना जिऊँ

कि ज़िन्दगी कहे-

अब बस! थक गई! अब और नहीं जी सकती!

हरदी गुरदी! हरदी गुरदी! हरदी गुरदी!

पर सोचती हूँ

मैं ज़िन्दा भी हूँ क्या?

जो इतना जिऊँ इतना जिऊँ इतना जिऊँ

क्यों जियूँ, कैसे जियूँ, कितना जियूँ?

मैं तो कब की मर चुकी

कभी भाला कभी तीर व तलवार से

सदियों सदियों सदियों से

अभी तेज़ाब आग बलात्कार और चुन्नी के फन्दों से

इसी सदी में इसी सदी में इसी सदी में

आज खून से लथपथ चीख रही हूँ

अभी अभी अभी

न तब किसी ने सुना न देखा न जाना

न अब।

 

दिन महीने साल व सदियाँ

आपस में कानाफूसी करते रहते-

ये ज़िन्दा क्यों रहती है?

ये मरकर हर बार जी क्यों जाती है?

मौत इसको छूकर लौट क्यों आती है

ये औरतें भी न अजीब चीज़ हैं

कितना भी मारो

जीना नहीं छोड़ती।

सोचती हूँ

मैं हँसती हूँ तो प्रश्न

प्रेम करती हूँ तो प्रश्न

अकेलेपन को भोगती हूँ तो प्रश्न

आबरू बचाने के लिए जूझती हूँ तो प्रश्न

हिम्मत दिखाती हूँ तो प्रश्न

हार जाती हूँ तो प्रश्न

अधिकार माँगती हूँ तो प्रश्न

प्रश्न प्रश्न प्रश्न।

उफ!

मेरी ज़ात ज़िन्दा है

यह प्रश्न है

बहुत बहुत बहुत जीना चाहती

यह भी प्रश्न है।

प्रश्नों से घिरी मैं

इतना इतना इतना जिऊँगी

कि ज़िन्दगी कहे-

जीना सीखो इससे

फिर कभी न कहना-

हरदी गुरदी! हरदी गुरदी! हरदी गुरदी!

-0-

4--भावना सक्सैना

 


उनके पास कैंचियाँ थी

आदर्शों, अपेक्षाओं की

कतर दी जाती थीं जिससे

उभरती-पनपती इच्छाएं,

मन के हौसले

और उड़ान...

कि ढलना चाहिए सांचों में

तय मानकों के अनुरूप।

 

अलग-अलग

खूबसूरत कैंचियां

रंग-बिरंगी

प्रेम की, ममता की

कुछ अनुभव की

नक्काशीदार...

छाँटती कुछ ख्वाब

और ख्वाहिशें सारी।

 

पांव के नीचे आती,

वांछाओं, कामनाओं की

कतरनों पर पाँव धरती

कदम दर कदम बढ़ती

कतरे जाने की

इतनी आदी हो गई

कि कब एक कैंची

ले ली अपने हाथ

वो जान ही न पाई!

 

और अब बरसों से

अपने ही आप

कतर रही है

अपने पंख,

अपनी परवाज़

कभी इस कारण

कभी उस कारण

औरों की खुशी को

बनाकर अपनी खुशी

तोलती अपना अस्तित्व

कतरा-कतरा कतरा हुआ...

प्राकृत की कतरन सा

छोटा बहुत छोटा...

-0-