पुस्तक समीक्षा
नवगीतों के घाट पर कागज़ की नाव
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति
विवरण: कागज़ की नाव, नवगीत संग्रह, राजेंद्र
वर्मा, वर्ष 2015, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, बहुरंगी,
पृष्ठ:80, मूल्य: 150 रु., उत्तरायण प्रकाशन, के 397 आशियाना कॉलोनी, लखनऊ-226012, दूरभाष-9839825062, नवगीतकार संपर्क 3/29, विकास नगर लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६।,ई-मेल-rajendrapverma@gmail.com]
*
'साम्प्रतिक मानव समाज से सम्बद्ध संवेदना के वे सारे
आयाम, विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ तथा संबंधों का वह
खुरदुरापन जिन्हें भोगने-जीने को हम-आप अभिशप्त हैं, इन सारी
परिस्थितियों को नवगीतकार राजेंद्र वर्मा ने अपने कविता के कैनवास पर बड़ी
विश्वसनीयता के साथ उकेरा है। सामाजिक यथार्थ को आस्वाद्य बना देना उनकी कला है।
अनुभूति की गहनता और अभिव्यक्ति की सहजता के दो पाटों के बीच खड़ा आम पाठक अपने को
संवेदनात्मक स्तर पर समृद्ध समझने लगता है, यह समीकरण
राजेंद्र वर्मा के नवगीतों से होकर गुजरने का एक आत्मीय अनुभव है।' वरिष्ठ नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल ने 'कागज़ की नाव'
में अंतर्निहित नवगीतों का सटीक आकलन किया है।
राजेंद्र वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी
रचनाकार हैं. दोहे, गीत, व्यंग्य लेख, लघुकथा, ग़ज़ल, हाइकु, आलोचना, कविता, कहानी आदि
विधाओं में उनकी १५ पुस्तकें प्रकाशित हैं। वे सिर्फ लिखने के लिये नहीं लिखते।
राजेंद्र जी के लिये लेखन केवल शौक नहीं अपितु आत्माभिव्यक्ति और समाज सुधार का
माध्यम है। वे किसी भी विधा में लिखें उनकी दृष्टि चतुर्दिक हो रही गड़बड़ियों को
सुधारकर सत्य-शिव-सुन्दर की स्थापना हेतु सक्रिय रही है। नवगीत विधा को आत्मसात
करते हुए राजेंद्र जी लकीर के फ़कीर नहीं बनते। वे अपने चिंतन, अवलोकन, और आकलन के आधार पर वैषम्य को इन्गित कर
उसके उन्मूलन की दिशा दिखाते हैं। उनके नवगीत उपदेश या समाधान को नहीं संकेत को
लक्ष्य बनाते हैं क्योंकि उन्हें अपने पाठकों के विवेक और सामर्थ्य पर भरोसा है।
आम आदमी की आवाज़ न सुनी जाए तो विषमता
समाप्त नहीं हो सकती। राजेंद्र जी सर्वोच्च व्यवस्थापक और प्रशासक को सुनने की
प्रेरणा देते हैं -
तेरी कथा हमेशा से सुनते आए हैं,
सत्य नरायन! तू भी तो सुन
कथा हमारी।
समय कुभाग लिये
आगे-आगे चलता है
सपनों में भी अब तो
केवल डर पलता है
घायल पंखों से
उड़ने की है लाचारी।
यह लाचारी व्यक्ति की हो या समष्टि की, समाज की राजेंद्र जी को प्रतिकार की प्रेरणा देती है और वे कलम को हथियार
की तरह उपयोग करते हैं।
सच
की अवहेलना उन्हें सहन नहीं होती। न्याय व्यवस्था की विकलांगता उनकी चिंता का विषय
है-
कौआरोर मची पंचों में
सच की कौन सुने?
बेटे को खतरा था
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली
अम्मा दौड़ीं बहुत
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली
कुलदीपक बुझ गया
न्याय की देवी शीश धुनें।
'पुरस्कार
दिलवाओ' शीर्षक नवगीत में राजेन्द्र जी पुरस्कारों के
क्रय-विक्रय की अपसंस्कृति के प्रसार पर वार करते हैं-
कब
तक माला पहनाओगे?
पुरस्कार
दिलवाओ।
पद्म
पुरस्कारों का देखो / लगा हुआ है मेला
कुछ
तो करो / घटित हो मुझ पर
शुभ
मुहूर्त की बेला
पैसे
ले लो, पर मोमेंटो / सर्टिफिकेट दिलाओ।
आलोचकों द्वारा गुटबंदी और चीन्ह-चीन्ह कर
प्रशंसा की मनोवृत्ति उनसे अदेखी नहीं है-
बीती
जाती एक ज़िंदगी / सर्जन करते-करते
आलोचकगण
आपस में बस / आँख मार कर हँसते।
मेरिट
से क्या काम बनेगा सिफारिशें भिजवाओ।
मौलिक प्रतीक, अप्रचलित बिम्ब, सटीक उपमाएँ राजेंद्र जी के नवगीतों
का वैशिष्ट्य है। वे अपने कथन से पाठक को चमत्कृत नहीं करते अपितु नैकट्य स्थापित
कर अपनी बात को पाठक के मन में स्थापित कर देते हैं। परिवारों के विघटन पर 'विलग साये' नवगीत देखें-
बँट
गयी दुनिया मगर / हम कुछ न कर पाये।
घर बँटा दीवार खिंचकर/ बँट गये खपरैल-छप्पर
मेड़
छाती ठोंक निकली / बाग़ में खेतों के भीतर
आत्म से बेखबर होना और खुद से साये का भी
अलग होना समाज के विघटन के प्रति कवि की पीड़ा और चिंता को अभिव्यक्त करता है।
राजेंद्र
जी राजनैतिक अराजकता, प्रशासनिक जड़ता और अखबारी निस्सारता के
चक्रव्यूह को तोड़ने के लिये कलम न उठायें, यह कैसे संभव है-
राजा
बहरा, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार
कलियुग
ने भी मानी जैसे / वर्तमान से हार
चार
दिनों से राम दीन की बिटिया गायब है
थानेदार
जनता, लेकिन सिले हुए लब हैं
उड़ती हुई खबर है, लेकिन फैलाना मत यार!
घटना
में शामिल है खुद ही / मंत्री जी की कार
XX
थाने
का थाना बैठा है जैसे खाये खार
बेटी
के चरित्र पर उँगली / रक्खे बारम्बार
यह नवगीत घटना का उल्लेख मात्र नहीं करता
अपितु पूरे परिवेश को शब्द चित्र की तरह साकार कर पाता है।
राजेंद्र
जी का भाषिक संस्कार और शब्द वैभव असाधारण है। वे हिंदी, उर्दू,
अवधी, अंग्रेजी के साथ अवधी के देशज शब्दों का
पूरी सहजता से उपयोग कर पाते हैं। कागज़, मस्तूल, दुश्मन, पाबंदी, रिश्ते,
तासीर, इज्जत, गुलदस्ता,
हालत, हसरत, फ़क़त,
रौशनी, बयान, लब,
तकरार, खर, फनकार,
बेखबर, वक़्त, असलहे,
बेरहम, जाम, हाकिम,
खातिर, मुनादी, सकून,
तारी, क़र्ज़, बागी,
सवाल, मुसाफिर, शातिर,
जागीर, गर्क, सिफारिश
जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरे अपनेपन सहित इंगिति, अभिजन, समीरण, मृदुल, संप्रेषण,
प्रक्षेपण, आत्मरूप, स्मृति,
परिवाद, सात्विक, जलद,
निस्पृह, निराश्रित, रूपंकर,
हृदवर, आत्म, एकांत,
शीर्षासन, निर्मिति, क्षिप्र,
परिवर्तित, अभिशापित, विस्मरण,
विकल्प, निर्वासित जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों
से गलबहियाँ डाले हैं तो करमजली, कौआरोर, नथुने, जिनगी, माड़ा, टटके, ललछौंह, हमीं, बँसवट, लरिकौरी, नेवारी,
मेड़, छप्पर, हुद्दा,
कनफ़ोड़ू, ठाड़े, गमका,
डांडा, काठ, पुरवा जैसे
देशज शब्द उनके कंधे पर झूल रहे हैं। इनके साथ ही शब्द दरबार में शब्द युग्मों की
अच्छी-खासी उपस्थिति दर्ज़ हुई है- मान-सम्मान, धूल-धूसरित,
आकुल-व्याकुल, वाद-विवाद, दान-दक्षिणा, धरा-गगन, साथ-संग,
रात-दिवस, राहु-केतु, आनन-फानन,
छप्पर-छानी, धन-बल, ठीकै-ठाक,
झुग्गी-झोपड़िया, मौज-मस्ती, टोने-टुटके, रास-रंग आदि द्रष्टव्य
हैं।
मन-पाखी,
मत्स्य-न्याय, सत्यनरायन, गोडसे, घीसू-माधो, मन-विहंग
आदि शब्दों का प्रयोग स्थूल अर्थ में नहीं हुआ है। वे प्रतीक के रूप में प्रयुक्त
होकर अर्थ के साथ-साथ भाव विशेष की भी अभिव्यंजना करते हैं। राजेंद्र जी
मुहावरेदार भाषा के धनी हैं। छोटे-बड़े सभी ने मिल छाती पर मूँग दली, रिश्ते हुए परास्त, स्वार्थ ने बाजी मारी, शीश उठाया तो माली ने की हालत पतली, किन्तु गरीबी ने
घर भर का / फ़क़त एक सपना भी छीना, समय पड़े तो / प्राण निछावर
/ करने का आश्वासन है, मुँह फेरे हैं देखो / कब से हवा और ये
बादल, ठण्ड खा गया दिन, खेत हुआ गेहूँ,
गन्ने का मन भर आया, किन्तु वे सिर पर खड़े /
साधे हुए हम, प्रथम सूचना दर्ज करने में छक्के छूटे, भादों में ही जैसे / फूल उठा कांस, मेंड़ छाती ठोंक
निकली, बात का बनता बतंगड़ जैसी भाषा पाठक-मन को बाँधती है।
राजेंद्र
जी नवगीत को कथ्य के नयेपन, भाषा शैली में नवीनता, बिम्ब-प्रतीकों के नयेपन के निकष पर रचते हैं। क्षिप्र मानचित्र शीर्षक
नवगीत ग़ज़ल या मुक्तिका के शिल्प पर रचित होने के साथ-साथ अभिनव कथ्य को प्रस्तुत
करता है-
क्या से क्या चरित्र हो गया / आदमी
विचित्र हो गया
पुण्यता अधर में रह रही / नित नवीन चोट सह
रही
स्नान कर प्रभुत्व-गंग में / पातकी पवित्र
हो गया
XX
राजेन्द्र जी की छंदों पर पकड़ है।
निर्विकार बैठे शीर्षक नवगीत का मुखड़ा महाभागवत जातीय विष्णुपद छंद में तथा अन्तरा
लाक्षणिक जातीय पद्मावती छंद में है। दोनों छंदों को उन्होंने भली-भाँति साधा है-
नये-
नये महराजे / घूम रहे ऐंठे।
लोकतंत्र
के अभिजन हैं ये / देवों से भी पावन हैं ये
सेवक
कहलाते-कहलाते / स्वामी बन ऐंठे
XX
नयी
सदी के नायक हैं ये / छद्मराग के गायक हैं ये
लोक
जले तो जले, किन्तु ये / निर्विकार बैठे
मुखड़े और अन्तरे में एक ही छंद का प्रयोग
करने में भी उन्हें महारत हासिल है। देखिये महाभागवत जातीय विष्णुपद में रचित कागज़
की नाव शीर्षक नवगीत की पंक्तियाँ -
बाढ़
अभावों की / आई है / डूबी गली-गली
दम
साधे / हम देख रहे / काग़ज़ की नाव चली
माँझी
के हाथों में है / पतवार / आँकड़ों की
है
मस्तूल उधर ही / इंगिति / जिधर धाकड़ों की
लंगर
जैसे / जमे हुए हैं / नामी बाहुबली
ऊपर उद्धृत 'सत्यनरायन' शीर्षक नवगीत अवतारी तथा दिगपाल छंदों
में है। राजेन्द्र जी का वैशिष्ट्य छंदों के विधान को पूरी तरह अपनाना है। वे
प्रयोग के नाम पर छंदों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं। भाषा तथा भाव को कथ्य का सहचर बना
पाने में वे दक्ष हैं। 'जाने कितने / सूर्य निकल आये'
में तथ्य दोष है। कहीं-कहीं मुद्रण त्रुटियाँ हैं, जैसे- ग्रहन, सन्यासिनि, उर्जा
आदि।
अव्यवस्था
और कुव्यवस्था पर तीक्ष्ण प्रहार कर राजेंद्र जी ने नवगीत को शास्त्र की तरह
प्रयोग किया है- राज बहरा, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार, अच्छे दिन आनेवाले थे /
किन्तु नहीं आये, नए-नए राजे-महराज / घूम रहे ऐंठे, कौआरोर मची पँचों में / सच की कौन सुने?, ऐसा
मायाजाल बिछा है / कोई निकले भी तो कैसे?, जन-जन का है / जन
के हेतु / जनों द्वारा / पर, निरुपाय हुआ जाता / जनतंत्र
हमारा- आदि अभिव्यक्तियाँ आम आदमी की बात सामने लाती हैं। राजेन्द्र जी आम आदमी को
उसकी भाषा में उसकी बात कहते हैं। कागज़ की नाव का पाठक इसे पूरी तरह पढ़े बिना छोड़
नहीं पाता यह नवगीतकार के नाते राजेंद्र जी की सफलता है।
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विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर-482001/ 9425183244