ज्योत्स्ना प्रदीप
हरियाली की मोहक छवि
समृद्धि के थे आह्वान
रे !
हरे -भरे थे खेत
जहाँ
सूने-से हैं मकान रे !
बैलो की मधुर घंटियाँ
गीत धरा के गाती थीं
स्नेह भरी माँ बेटों को
रोटी- साग खिलाती थी
राजा मिडास जैसा तू
बना है क्यों धनवान रे ! 1
रोटी की पोटली लियें
धूप में आती नार थी ।
नयनो के काजल में भी
ठंडी छैया अपार थी ।
भरे थे जो अनाजों से ,
सिसकते है खलिहान रे । 2
गेहूँ की बालियाँ कभी
उसकी
बालियों से लड़ी
वो तकती तेरा रास्ता
चिनाब के किनारे खड़ी
माटी में कहीं दबे हुए
मैं ढूढ़ूँ वो निशान
रे ! 3
उसपर
जुल्म ये ढाया है
तू बसा कहीं
बिदेस रे
वो कैसा सोना रूप था
ये क्या बनाया भेस रे?
आजा तेरी बेबे के
उड़ने चले है प्राण रे ! 4
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