-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
मैं वह दीपक नहीं , जो आँधियों में सिर झुका दे ।
मैं वह दीपक नहीं , जो खिलखिलाता घर जला दे ।
मैं वह दीपक नहीं , जो दुखी से मुँह मोड़ लेता ।
मैं वह दीपक नहीं , जो गाँठ सबसे जोड़ लेता ।
मैं तो वह दीपक हूँ , जो खुद जलकर मुस्कुराता ।
मैं तो वह दीपक , जो पर पीर में अश्रु बहाता ।
मैं वह दीपक सदा जो गैर को भी पथ दिखाता ।
मैं वह दीपक, तुम्हारे नेह को जो सिर झुकाता ।
विष पी सुकरात तक भी कुछ नहीं समझा सके थे ,
कौन समझेगा? शिव ने क्यों किया विषपान हँसकर
दीप जलकर झूमता क्यों बहुत कठिन है बताना ।
मैं जलता हूँ कभी अन्धकार न तुमको रुलाए ।
मैं जलता हूँ कोई दुख कभी नहीं पास आए ।
मैं जलता हूँ तुम्हारे कल्याण की बनकर शिखा ।
मैं जलता हूँ कि कोई दिल तुम्हारा ना दुखाए ।
बस आज मेरी तो सभी से , है इतनी प्रार्थना -
प्यार के दो बोल मुझसे तम -पथ में बोल देना ।
रात भर जलता रहूँगा , नेह थोड़ा घोल देना ।
आँधियाँ जब-जब उठें ,तुम द्वार अपना खोल देना।
-0-