रश्मि विभा त्रिपाठी
रश्मि विभा त्रिपाठी
ख़याल
माँ की उँगली थामे
मेले में घूमते
छोटे बच्चे- सा है
हाथ छूटा
तो
क्या मालूम
कहाँ गुम हो जाएगा
ख़याल
जड़ से सूखे
एक
भरे- पूरे पेड़- सा है
जो
दोबारा
कभी नहीं हरियाएगा
ख़याल
पहाड़ों की गोद से
उछलकर
उतरी
नदी- सा है
जो मैदानों में जाकर
भूल बैठी
वापसी का रास्ता
ख़याल
चाँद- सा है
जिसका
अमावस से
कुछ भी नहीं
लेकिन
कुछ न कुछ तो है वास्ता
ख़याल
सफर पर निकले
मुसाफिर- सा
जिसे
मंजिल का भी इम्कान नहीं
और
घर लौटकर आना भी
जिसके लिए
आसान नहीं
ख़याल
मौसम- सा है
जिसका
कोई ऐतबार नहीं
कब बदल जाए
कौन- सी चाल चल जाए
ख़याल वक्त- सा है
जो एकबारगी
गुज़र जाए
तो
पलटकर
फिर नहीं आए
ख़याल उम्र- सा है
जो
दिन- ब- दिन
धीरे- धीरे
ढलता ही चला जाए
ख़याल मौत- सा है
जो दम तोड़ दे
तो फिर से
साँस ना ले पाए
मेरे ख़याल में
तुम
रहते हो
इस तरह
जैसे
रहते हैं
आदमी के साथ- साथ साए
मेरी रूह में
तुम्हारा खयाल
पल रहा है
हर हाल में
मेरा एहतमाम
मुसलसल
रहा है
कि
ये
कसकरके
तुम्हारी उँगली
पकड़े रहे
हरियाता रहे
हरहराता रहे
ये
हमेशा रहे
चमकते चाँद- सा
जिसके दीदार से हो
हर दिन ईद
जिसे पूजकर
अखण्ड सुहाग की
मनौती पूरी हो
दमकती रहूँ
मैं
जिसे बाहर की हवा
लगने नहीं दूँ
कहीं घर से
निकलने नहीं दूँ
जो
सदाबहार रहे
और
मैं महकूँ
पूरे हों
दिल के अरमान
रहे- रहे
पल- पल जिसके संग चलूँ
आँधी- तूफान में
हाथ में हाथ लेकर
शहर की सड़क
मुहल्ले की गली
या घर के दालान में
तुम्हारे ख़याल की
रवानी
ज्यों- ज्यों बढ़ रही है
त्यों - त्यों
अहसास पर
जवानी
चढ़ रही है
जो
अब तक
मुझे जिंदा रखे हुए है
और
जिसे मैं
अपने जीते- जी
कभी मरने नहीं दूँगी
चाहे कोई कुछ भी कहे।
-0-