पथ के साथी

Monday, October 30, 2023

1382

 

प्रेम की प्रतीक्षा में... (सॉनेट)

अनिमा दास

  


प्रेम की प्रतीक्षा में तपोवन की तपस्विनी कह रही क्या सुन

मेदिनी वक्ष में कंपन मंद- मंद, ऐसी तेरे स्पंदन की धुन

बूँद-बूँद शीतल-शीतल तेरे स्पर्श से सरित जल कल-कल

मंदार की लालिमा- सा क्यों दमकता तपस्वी मुखमंडल?

 

रहे तम संग जैसे शृंग गुहा में खद्योत, ऐसे ही रहूँ त्रास संग

अयि! तपस्वी,मंत्रित कर अरण्य नभ,भर वारिद में सप्तरंग

शतपत्र पर रच काव्यचित्र मेरी काया को कर अभिषिक्त

अयि! तपस्वी,त्रसरेणु- सी विचरती,कर स्वप्न में मुझे रिक्त।

 

कह रही तपस्विनी, तपस्वी हृदय की अतृप्त तरुणी

रौप्य-पटल पर कर चित्रित मुग्ध मर्त्य,दे दो मुक्त अरुणी!

तपस्या हुई तृप्त, नहीं है क्षुधा का क्षोभ क्षरित स्वेदबिंदु में

समाप्ति के सौंदर्य से झंकृत बह रही निर्झरिणी सिंधु में।

 

अयि तपस्वी! मोक्ष की इस सूक्ष्म धारा में है समय,कर्ता

स्मृति सहेजती तपस्विनी के द्वार पर मोह है मनोहर्ता।

 

-0-

कटक, ओड़िशा 

 

 

 

 

Tuesday, October 24, 2023

1381

 

छलिया सपने

 सविता अग्रवाल 'सवि'

 

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

बंद नयन के द्वारों पर

क्यों दस्तक देकर आते हो ?

साकार नहीं होना होता

तो क्यों नयनों में सजते हो?

तुम कौन देश से आते हो?

और कौन दिशा को जाते हो?

छलिया बन मुझको छलते हो

परदेसी बन चल देते हो

मेरी नींदों को मित्र बना

मुझसे ही शत्रुता करते हो

बालक को लालच देते हो

फिर छीन सभी कुछ लेते हो

मन में मेरे एक दीप जला

क्यों आँधी बन आ जाते हो

उषा की किरणों में मिल कर

क्यों धूमिल से हो जाते हो  

शबनम की बूँदों की भांति

क्यों मिट्टी में सो जाते हो

मन मेरे में एक आस जगा

नव ऊर्जा सी भर देते हो

 

 पल भर में क्यूँ शैतान से तुम

 

मुझे चेतनाहीन बनाते हो

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

छलिया सपनों संग रोज़ रात

मैं यूँ ही झगड़ा करती हूँ |

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1380

 


हरसिंगार

सुरभि डागर

 


हरी-हरी डालियों पर 

भरे  हरसिंगार के  फूलों से

वायु भी सुरभित हो

हृदय को स्पर्श कर

मन को सिंचित कर देती,

मानों रात ही महक उठी हो ।

सुवह की भोर में शा से झरकर

बिखर जाते हैं धरा की गोद‌ में,


जा प
हुँचते हैं

किसी की पूजा की  थाली में

हो जाते हैं महादेव पर समर्पित

और पूर्ण हो जाती है

गंगाजल में विसर्जित होकर

हरसिगार की जीवन-यात्रा।

बस ये ही जीवन है ! !

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-0-

Friday, October 20, 2023

1379

 माँ का मायका  

 कृष्णा वर्मा


खो गया था माँ का मायका

जिस दिन खोई थी मेरी नानी

नानी के साथ-साथ खो गया था

वह नक्शा जिस पर अंकित थे

माँ की पहली किलकारी

पहले क़दम और पहले शब्द के नक़्श

युवा होती माँ के सतरंगी सपनों   

शरारतों ज़िदों प्यार और मनुहार का बही ख़ाता    

कैसे ममता में डुबो-डुबोकर सुनाती थी नानी

इकलौती बेटी के लड़कपन के किस्से

न चाहते हुए भी जल के राख हो गई

नानी के साथ सारी बही

ग़म ओढ़े गुमसुम सी माँ ठंडी साँसें भरती

औचक सिर हिलाती बुदबुदाने लगती

माँ तो माँ ही होती है

भले वह तैराक न हो पर जानती है तारना

डरना क्यों? मैं हूँ ना! कहकर

ताल में उतरने का देती है हौसला

माँ ऐसा भरोसा जो कभी डूबने नहीं देता

ख़ुद अनजान होती है उड़ान से

पर हमें सपनों के पंख लगाकर

दिन-रात उड़ाती है सातवें आसमान तक

मेहरबानियों से भरा रखती है घर द्वार आले दीवार

किसी से न तो कुछ माँगने का ढब जानती है

न किसी बात को मना करने का

 

बस आठों पहर होठों पे रखे असीस बाँटती है

दरियां खेस भले बुनना जाने न जाने पर

रिश्ते बुनने में बड़ी माहिर होती है

यादों को फ़ोलती माँ फिर-फिर सुबक उठती  

उसकी आँखों में आँसुओं के संग

तैर रहे हैं नानी के संग के प्रसंग

बीता हुआ प्रत्येक क्षण कसमसा रहा है अंतस को

माँ को यूँ दुख में निढाल देख

अचानक युवा हो गए मेरे काँधे

उसकी आँखों में उमड़ते सैलाब को

बाँध लगाने को प्रयासरत थीं मेरी हथेलियाँ 

माँ को सीने से लगाकर सुनने लगा था मेरा सीना

माँ की अपूरणीक्षति की चित्तकार

निर्जीव सी खोखली हुई माँ के

दुख की थाह को मापने को जुटी थीं

मेरी नाक़ाम कोशिशें

हर बार शून्य ही मिल रहा था 

मेरे अंदाज़ों का परिणाम

बार-बार माँ को धीरज बँधाने को

ख़ुद से सटाते हुए सोच रही थी

कि नानी के गम में यूँ घुल-घुलकर

कहीं चली गई जो मेरी भी माँ

तो कौन सटाएगा मेरी तरह

मुझे सांत्वना देने को अपने सीने से। 

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Monday, October 16, 2023

1378-चिकौटियाँ

 

1- हथकटी ठाकुर

 


 

छुट्टी वाले दिन
जब पतिदेव
हर घंटे दो घंटे बाद रह-रहकर बोलें-'तुम्हारे हाथों की बनी हुई चाय पीने का मन कर रहा है'
'गरमागरम कॉफी पीने को जी मचल रहा है
सच बता रहें हैं हम-
हमारी आत्मा
कह उठती है-
हे प्रभु!
हमें 'शोले पिक्चर' वाले 'ठाकुर साहब' क्यों नहीं बना देते आप?
'हथकटी ठाकुर लिली की गुहार'

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 2- हॉलोविन की डायन



 

सुनो लड़कियो! शायरों से खुद को बचाकर रखना,

बहुत ही 'डेंजरस प्रजाति' हैं- रे बाबा!

एक शायर साहब ने कहा है -
'चाँद शरमा जाएगा, चाँदनी रात में
यूँ ना जुल्फों को अपनी सँवारा करो'
हैं!
...
मतलब?
...
हम बेचारी हॉलोविन की डायन बनी फिरती रहें
क्या!!

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3- इज़हार-ए-ख़ौफ़

 


जैसे ही हमारे हाथ में ये पोछे वाला डंडा-बाल्टी आता है, हमारे घर के वातावरण में एक ख़ौफ पसर जाता है,
और फिर बजता है, बैकग्राउंड में स्पॉटीफाई (म्यूजिक ऐप) पर बारम्बार 'सुधा रघुनाथन' की आवाज में-
'भो शम्भू
शिव शम्भू
स्वयं भो,'
ढिढिंग ढिढिंग मृदंगम् की जबरदस्त ऊर्जा से भरपूर स्वर संगीत- लहरी पर एकदम तांडवीमुख मुद्रा लिये पोंछा मारते हुए, हम! सामने कोई आ जाए, उस वक्त तो एक जोड़ी ज्वलंत दृष्टि से- ढाँय...
एकदम्म फायर!!


एक दिन बिचारे हमारे पतिदेव ने 21 वर्ष बाद हमसे कबूला कि सुनो लिली, तुम्हारे इस अवतार को देखकर हम डर के मारे काँप जाते हैं, भीतर तक।

अरे बता नहीं सकते आप लोगों को, के हम केतना खुस हुए ये 'इजहारे- ख़ौफ' सुनकर
सच्ची!
तो बोलो-

भो शम्भो, शिव शम्भो, स्वयंभो

भो शम्भो, शिव शम्भो, स्वयंभो
गङ्गाधर शंकर करुणाकर मामव भवसागर तारक...।

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 4- लिलीबाण नुस्खे

 


 

 

बहुत बड़ा पहाड़- सा लक्ष्य साधने के लिए कभी-कभी मेहनत, लगन, एकाग्रता, तत्परता, जैसे प्रेरणाप्रद, जोशीले, चॉकोलेटी मनोभावों के साथ कुछ 'कड़वे करेले-दूजे नीम चढ़े 'जहर मनोभावों का सम्मिश्रण करना परमावश्यक हो जाता है, जैसे- बेवजह पतिदेव से झगड़ लेना, अपनी गलतियों का दोषारोपण उन पर लगाना, सामान्य सी बातों का बतंगड़ बनाकर तू-तू, मैं-मैं का परिवेश निर्मित करना। इससे होगा यह कि आप तिड़कती -भिड़कती उठेंगी क्रोध के आवेश में सिंक में ढेर लगे बर्तन फटाफट निकल जाएँगे, उबलते गुबार में तन का सारा आलस्य रफूचक्कर हो जाएगा कुछ देर पहले तक फैले घर के सारे कामों को निपटाने का पहाड़- सा लक्ष्य झटपट निपट जाएगा।

रही बात पतिदेव के बिगड़े मिजाज ठीक करने की... एक कप गरम चाय / कॉफी बनाइ
बेवजह झगड़े की वजह बताइए... अपनी गलतियों का दोषारोपण उन पर से हटाइए और तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में लाइ

( आवरण एवं सभी रेखाचित्र;सौरभ दास)



Saturday, October 14, 2023

1377

 गाँव से ....

भीकम सिंह 

 


नीम के साये में 

सुस्ता रहा 

ईख की निराई करके 

एक बूढ़ा किसान 

खेत के किनारे 

उतरती संध्या को 

टकटकी बाँधे देख रहा 

होते हुए  रात।

 

एक नगर

खेत में घुसता हुआ 

बूढ़ा देखता है 

खेत को बिकता हुआ 

ईख के पौधों की 

जब सिसकियाँ 

कानों में लगी टकराने 

लगा बड़ा आघात

 

-0-

Thursday, October 5, 2023

1376

 1- डॉ. शिप्रा मिश्रा



1. बिछिया

 

उस विवाह में

हम भी हुए थे निमंत्रित

भरपेट खाए थे भोज

और..

मन भर मिठाइयाँ भी

एक साड़ी, टिकुली, सेनूर,

आलता भेंट भी कर आए थे

और..

एक जोड़ी बिछिया भी..

कलेजे का टुकड़ा थी वह

मेरी छात्रा नन्दिनी

जन्मजात तेजस्विनी

ऊर्जस्वित, निष्ठावान

मृदुभाषी, सौम्य, शिष्ट

उसकी मौन, मूक आँखों ने

अनेक बार

मेरे सबल संबल को

निरर्थक ढूँढने को

छटपटाती रही

मेरे मजबूत आलिंगन में

सुरक्षित, संरक्षित होने को

कसमसाती रही

परन्तु..

परंपराओं के नाम पर

चढ़ा दी गई बलि

और..

स्वर्णिम भविष्य का

एक कोरा पन्ना

बेरंग बन कर रह गया

अलिखित, अचित्रित

जानबूझकर अनजान बनने का

देख कर भी अनदेखी करने का

समझ कर भी नासमझी का

इससे सुन्दर स्वांग भला

और क्या हो सकता था

एक नाबालिग नन्दिनी

अपने तीन बच्चों समेत

जब मेरे समक्ष आती है

उसकी मौन में भी

कई अनुत्तरित प्रश्न

हाहाकार मचाए रहते हैं

वह बिछिया आज तक

मेरे कलेजे में चुभती है

और..

कर देती है लहूलुहान

मेरे स्त्रीत्व को,

अस्तित्व को, गुरुत्व को

अदृश्य चुनौती देती है

काश! मैं उसे बचा पाती

उस दैहिक, दैविक, भौतिक

प्रताड़ना से

-0-

2. पुनर्नवा सृष्टि

 

सद्यःजात कन्या

उतरती है अवनि के

मृदु अंक में

किलकती, चहकती,

ठुनकती, खिलखिलाती,

हँसती, मुस्कुराती

न जाने कब, कैसे

परिवर्तित होती है

एक संपूर्ण स्त्री में

तत्पश्चात..

सृजती है अथक,

अविराम, अनवरत

एक विस्तृत, मनमोहक,

मुग्ध, अलौकिक संसार

पुनश्च..

उसी स्वयंभू संसार से

लड़ती, भिड़ती,

जूझती, टकराती,

टूटती, बिखरती

चूर-चूर होती

हो जाती है समाहित

उसी भूमि में,

पुनः आत्मसात्

और

लेकर पुनर्जन्म

होती है पुनर्नवा

निकल पड़ती है अविराम

अपने अमूल्य सृजन को

सृष्टि का चक्र

ऐसे ही चलता रहेगा

होती रहेगी नित्य, अर्वाचीन

वरदायिनी सृष्टि

देह मिट जाती है

सृष्टि नहीं मिटती

सृजन शाश्वत है

बनाए रखता है

भूमि को सदैव

मातृवत्सला, नववधू

 0-

डॉ.अरुणा



1.

मैं अपने पथ पर

सूर्य की परिक्रमा करती

यह पृथ्वी हूँ,

जिसने तुम्हारे

सभी कर्मों को

धारण किया।

 

तुम विश्वास नहीं करोगे शायद

किंतु मैं

अनंत तक ब्रह्माण्ड में फैली

वो आकाशगंगा हूँ

जिसने तुम्हारे सारे दुखों को

अपने में समा लिया है।

 

तुम्हें मानना ही होगा

मुझे सुखदायी प्रकृति

जो हजारों प्रसवों की 

पीड़ा को सहकर

तुम्हें जीवनदान देती है।

 

चलो कुछ न मानों पर

तुम मुझे इंसान तो

मान ही सकते हो।

 

2.

प्रतीक्षारत मैं खड़ी हूँ

घर कि देहरी पर,

तुम्हारा आना अनिश्चित है,

किंतु मेरा इंतजार करना सुनो,

सदियों के लिये निश्चित है,

अंतर्विरोधों के गहनतल पर

एक आस फिर जगती है 

मेरा जीर्ण शरीर, सह लेगा

मौसमों का परिवर्तन, क्योंकि 

तुम्हारी यादों के प्रेम के पलों में

सदा के लिए बँधी  हुई है 

मेरी आत्मा, जो लौकिक देह

कि सीमाओं  से मुक्त है,

देहरी की सीमाओं को लाँघ 

तुम्हारी हथेलियों का स्पर्श पाकर 

तुम्हारे ह्रदय के विस्तार में 

झरना बनकर गिरना चाहती हूँ,

गाना चाहती हूँ उन अनगढ़ गीतों को

जिन्हें मैंने मन के कागज़ पर ढाला।

सुनो मैं प्रतीक्षारत वहीं ठहरी रही

उदास शामें कभी कभी मुस्कुराती है

क्षीण से क्षणों में मौन बहता है 

नीला नभ भी हरा हो उठता है तब

सूर्य अपने ताप को कम कर,

चूम लेता है साँझ की उदास हथेलियों को।

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3. वेश्या होना.....

 

कौन थी मैं

कहाँ से आई थी,

नहीं जानती

शायद चुरा ली गई थी,

किसी गरीब के झोंपड़े से

मानसिक प्रताड़ना,

दैहिक मारपीट

यौन अत्याचार,

सब सहा, और कर दिया गया

मेरा ब्रेनवाश,

नाचने गाने और

शरीर बेचने को तैयार,

हां धंधेवाली कहते हो,

तुम फिर भी चले 

आते हो मेरे वेश्यालय में

बहाना यह कि शरीर की 

जरूरत है, भोगते हो मुझे

भूख, प्यास, कपडे़-लत्ते की तरह,

परोसी जाती है मेरी देह

रोज किसी थाली में

लजीज भोजन की तरह,

नहीं तुम नहीं जानते

क्या है वेश्या होना............

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