कविताएँ –डॉ सुधा गुप्ता
1
जंगली लतर थी
भूलवश
घर में उग
आई
फूली न फली
न पानी की
कमी
न धूप की
पर पनपी नहीं-
मुरझा गई फिर
भी:
शहर रास न
आया!
2
'प्यार में झुकना
सीखो'
जग ने शिक्षा
दी
मैंने
न सिर्फ़ सुना
बल्कि गुना भी.
जीवन में उतारा.
झुकती गई … झुकती रही
…
झुकती ही रही
…
'वह' तनता
गया
लगातार तनता रहा
…
फिर एक दिन
वह बन गया
'तीर'
मैं बनी रह
गई
'कमान'…
-0-
3- रोशनी में
नहाए गीत
तुम्हारी आँखों की
रोशनी में
नहाए गीत
लिख लेती हूँ
अँधेरों की खन्दक
से बाहर आ
गहरी साँस भर
कुछ पल जी
लेती हूँ.
-0-
4-
निर्धूम, निष्कम्प, निर्व्याज
नेह भरा
नन्हा यह दीया
तेरी देहरी पर
जलता रहा
घर-बाहर रौशन
करता रहा
कभी भूले से
भी
उठाकर
घर में 'दीवट' पर धर दे
तुझसे
इतना भर न
हुआ!
-0-
5
फागुन का बंजारा
महुआ की मस्ती
पी
लदान कर रहा
पलाश / कचनार का
जंगलों की ओर
अल्हड़ चैत की
हँसी
रोके न रुकी
-0-
6
कार्तिक ने दीये सजाए
'वनदेवी' की
अभ्यर्थना में
शाम लेती झुरझुरी
उदास रात ढूँढती
फिरती
ऊनी चादर!
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7
सूरज
का गुस्सा देख
सड़कों को चढ़ा
बुख़ार
फट गए
ह्रदय
बिलखे सरोवर / ताल
शूकर-दल मस्त:
थोड़ी-सी कीचड़
बाक़ी है!
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8
हाथों में
आरी-कुल्हाड़ी
ले कर आए
हैं-
पूछते हैं-
कैसे हो दोस्त?
9
शुरू
चैत के
मीठी तपन भरे,
अलसाए दिन
काम-धाम कुछ
नहीं
गिन-गिन के
कटते हैं पल-छिन
याद ना करो
हिचकियाँ आती हैं…
काँजी का तीता
पानी, जैसे
गले में फँस
जाए
खाँस-खाँस कर
बुरा हो हाल
नाक पकड़ कोई
आँख-मुँह पर मल
दे,
भर दे गुलाल
साँसे रुक जाती
हैं
हिचकियाँ आती हैं,
बड़ा तड़पाती हैं
याद न करो…
-0-
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