पथ के साथी

Tuesday, December 21, 2021

1170-बंधन

कृष्णा वर्मा 


बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें         

लेकिन भींच लेता हूँ मुठ्ठी में 

कसकर सोच की लगाम 

चाहे कितना भी दबा लूँ 

अंतस् की आग को,   

फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से 

थक गए हैं मेरे हवास 

लगा-लगाकर होंठों पर ताला 

अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से 

जिसे कब का बेमायने कर दिया है

तुम्हारी हठधर्मियों ने  

चाहकर भी मन कस नहीं पाता  

ढीली हुई रिश्तों की दावन को 

सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता

ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द 

तुम्हारे ग़ुरूर को बेंधने को 

मेरी चुप्पियाँ 

तुम्हारी अना की जीत नहीं 

अपितु गृह कुंड में शांति की आहुति है 

अच्छा होगा जो अब भी

थाम लो तुम 

अपनी कुंद सोच के क़दम

ऐसा न हो रह जाए कल

तुम्हारी ज़िद की मुठ्ठी में

केवल पछतावा।