पथ के साथी

Thursday, April 29, 2021

1097-बेटियाँ शीतल हवाएँ

 कुँअर बेचैन










 1 जुलाई 1942को ग्राम -डमरी ( मुरादाबाद ) में जन्मे हिन्दी गीत -ग़ज़ल के पुरोधा कुँअर बेचैन( कुँवर बहादुर सक्सेना) नहीं रहे। मेरे सम्पादन में  प्रकाशित पुस्तकों की शृंखला  डीसेण्ट  हिन्दी रीडर में आपकी कविता ‘बेटियाँ शीतल हवाएँ’ बहुत चर्चित रही। यह कविता विगत बीस वर्षों से कक्षा 8 के बहुत से  विद्यार्थी पढ़ चुके हैं। सहज साहित्य -परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि !

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'











1096-तो बस तुमको गाता हूँ

 डॉ.आदित्य शुक्ल

 

मैं तो बस तुमको गाता हूँ

केवल तुम्हें रिझाने को।


लोग भले उसे मेरी कविता

गीत, कहानी कहते हैं। 

शब्द-शब्द में, छंद-छंद में,

बंध-बंध में नाम तेरा।

लोग भले ही उसको मेरी,

कृति सुहानी कहते हैं।।

 

नई कल्पनानई योजना,   

रूप नया,  शृंगार नया।

सृजन नया, संकल्प नया,

सिद्धान्त नया, स्वीकार नया।

रोज नए संबंध, नया-

 संसार गढ़ा,तुम्हें पाने को।

लोग भले ही सुन उसको,  

मुझको विज्ञानी कहते हैं ।1

 

मन मुखरित हो जाता मेरा

चिंतन में जब तुम आते हो।

मेरा योग न होता किंचित्, 

जो लिखना, तुम लिख जाते हो।

हर एक स्वर में, राग-राग में,

तुम गाते हो गाने को,

लोग भले ही उसको मेरी,

मधुरिम वाणी कहते हैं ।2

 

सबके आगे हाथ पसारूँ, 

इतना भी भाव नहीं है। 

तुमसे परे और कुछ सोचूँ,

मेरा यह स्वभाव नहीं है। 

स्वांग रचाता, मैं तेरा हूँ

तुमको यह बतलाने को।

लोग भले ही आपस में,

कुछ दबी जुबानी कहते हैं।3

 

तुम अनंत हो, तुम असीम हो,

जाऊँ मैं तुम पर बलिहारी।

मन में भाव अथाह लिये, 

मैं थाह नहीं पा सका तुम्हारी।

एक अबोध सा बोध लिये हूँ,

मन की व्यथा सुनाने को।

लोग भले ही देख उसे,

मुझे निभिमानी कहते हैं।4

-0-

डॉ.आदित्य शुक्ल- (बैंगलोर 094482 06113)

Tuesday, April 27, 2021

1095

 1-निकलेगा हल

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

 

निकलेगा हल,

हल निकलेगा,

आज नहीं तो कल।

 

फोटो सौजन्य    कुँवर दिनेश

जहाँ नहीं अंकुर फूटे हों
,

गीला रखना तल,

नहीं लगा हो, वहाँ लगाना,

पानी का भी नल,

यह भी संभव, ले गंगा को,

आ भी जाएँ 'चल’ 

 

हर दिन को, अँगुरी पर गिन-गिन,

जीवित रखना पल,

आया है जो आज बुरा दिन,

वह जाएगा टल,

साथ निभाएगा हर सपना,

भागेगा हर छल

 

जिस जीवन में जगा भरोसा,

झील वही है‘डल’

सच्ची बातें भी आँखों को

अक्सर जातीं खल,

मानव है तू, मानव ही रह,

मत ओला सा गल 

 

जीवन भर डालो हर जड़ में,

दृढ़तापूर्वक जल,

इस प्रयास का, एक नया सा,

मिल सकता है फल,

चलो! खिलाएँ हम मरुथल में,

साँसों का शतदल 

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2-अपराजेय

संजय भारद्धाज

 

"मैं तुम्हें दिखता हूँ?"

उसने पूछा...,

"नहीं..."

मैंने कहा...,

"फिर तुम

मुझसे लड़ोगे कैसे..?"

"...मेरा हौसला

तुम्हें दिखता है?"

मैंने पूछा...,

"नहीं..."

" फिर तुम

मुझसे बचोगे कैसे..?"

ठोंकता है ताल मनोबल,

संकट भागने को

विवश होता है,

शत्रु नहीं

शत्रु का भय

अदृश्य होता है!

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9890122603
writersanjay@gmail.com

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3- काँटों भरी डगर है

कृष्णा वर्मा 

काँटों भरी डगर है

शामत भरा सफ़र है

मेघ घनेरे छाए हैं 

अँधियारों के साए हैं 

उम्मीदों के दीप जला 

पल में दिल की थकन मिटा 

बदलेंगी विक्षिप्त हवाएँ 

जल्दी होंगी फलित दुआएँ 

कब तक काल करेगा तांडव 

कब तक मौन रहेंगे माधव 

निश्चित ही गांडीव उठेगा

जल्द मिटेगी दुख की रेखा

बस विश्वास बनाए रखना 

सुख की आस लगाए रखना 

बुझ न पाए दीप आस का

प्रतिपल ओट लगाए रखना 

जल्द टेंगे काले बादल 

होंगी ख़ुशियों की बरसातें 

फिर से जीवन हरियाएगा 

ज्ज्वल दिन दमकेंगी रातें 

फिर से गले मिलेंगे अपने 

स्वर्णिम होंगे सारे सपने 

काल का कब्ज़ा है साँसों पर 

बस इतनी सी बात समझ ले 

तन्हा रह एहतियात बरत ले। 

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Monday, April 26, 2021

1094

 

कमला निखुर्पा

1

आशीष हाथ

धरा मेरे सर पे

घनी छाँव पा

पुरसुकून हुई

भरी दुपहरी भी ।

2

दूर से आई

नेहिल पुरवाई ।

चहके पंछी

झूमा तरु- मन ये

नन्ही कली भी खिली ।

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Saturday, April 24, 2021

1093- उम्मीद का एक टुकड़ा

 1-डॉ. सुषमा गुप्ता 

 1-हौसला

 


टूटे हुए पत्ते ने

शाख से पूछा-

क्या करू जतन

जो तू फिर से

अपना ले मुझे

बहुत याद आता है

बहारों में तुझ पे झूलना।’

रूखा-सा जवाब आया-

हवा के साथ

कभी शाख से टूटे पत्ते भी

जुड़ा करते हैं

तुझे तो इस मिट्टी में ही

अब है मिलना।’

पत्ता धुन का पक्का

चुपचाप घुला मिट्टी में

जड़ों से तने

तने से शाख में पहुँचा

कि उसे फिर पत्ता बन

इसी शाख से था लिपटना।

कमाल का हौसला था

 अदना -से पत्ते का

 

और कमाल का ही सब्र

उसके हौसले का

लो इंसानों तुम्हें

अब भी रह गया ये सीखना !

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2-हौसलों की आग

 

मैं उजाला हूँ

अँधेरे खा नहीं सकते मुझे

बहुत सदियों से मैं ही अँधेरे

ग्रास करता हूँ।

मुश्किलें तो आती हैं

मुश्किलें तो आएँगी

में कहाँ

प्रकृति के नियम से

इन्कार करता हूँ।

पर एक नियम

विनाश के बाद

सृजन का भी है

अपनी मृत होती रूह में

यूँ जीवन संचार करता हूँ ।

अजर-अमर अजेय


कभी  
अँधेरे हो नहीं सकते

हथेली पर लिये

दीया हिम्मत

इन्हें आह्वान करता हूँ ।

छिन्न-भिन्‍न कर दूँगा

कण-कण को अँधेरे मैं तेरे

तू देख बस

खुद में मैं कैसी

हौसलों की आग रखता हूँ । 

(उम्मीद का टुकड़ा-संग्रह से साभार)

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2- पूनम सैनी

1-नया सफ़र

 


सहर नई
,पंछी वही,

परवाज़ न

सागर- से विशाल हौसले लिये

दीप -सी चमक आँखो में उतारे

झील- से गहरे भाव

कोमल छुईमुई -से मन में पिरोए

आगाज़ कर रहे है

नए सर का

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2-दीप नहीं आशा मेरी

 

दीप नहीं आशा मेरी

कहो कभी बिन बाती के भी

क्या जलते देखा दीप कोई

जब तक बाती तेल रहेंगे

रोशन दीप तभी तो होगा

पर आशा की ज्योति मेरी

बिन ईंधन ही जलती जाए

 

घोर तूफानों  के आगे मैंने

नतमस्तक कब होना सीखा

पर वो आँधी के झोंके सहके

आखिर कब तक जल पाएगा

 

दीपक तेरी लौ छोटी है

सीमाओं में बँधा हुआ तू

क्या क्या रोशन कर पाएगा

आशा हिम्मत की साथी

घोर तिमिर में एक किरण

आशा की ज्योति जब जगती

सूरज भी फीका पड़ जाए

 

लाख तूफानों से घिरी हो

मुमकिन नहीं ये बुझ जाए,

दीप नहीं आशा मेरी

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Thursday, April 22, 2021

1092-

 आपके   शीघ्र स्वस्थ होने की कामना के साथ  -सहज साहित्य परिवार

परमजीत कौर रीत


कोविड पोजिटिव होकर अस्पताल में भर्ती हूँ ऐसे में एक बार फिर अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ने का अवसर मिला है। समीक्षा लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है
   बस अपनी वर्तमान स्थिति में बनजारा मन' पढ़ते समय जो विचार आ रहे हैं वो प्रस्तुत कर रही हूँ -

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बनजारा मन

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बनजारा मन समसामयिक जीवन का गहन दस्तावे है । अपनी वर्तमान स्थिति के अनुरूप मुझे इसमें अनेक सकारात्मक रचनाओं ने प्रेरित किया है जिंदगी की जंग और कठिन काल में हौसला बढ़ाया है ; इसके लिए बनजारा मन की तहेदिल से आभारी हूँ।

वैसे तो अनेक रचनाएँ अलग-अलग रूपों में महत्वपूर्ण हैं पर यहां मैं कुछ कविताएँ रेखांकित कर रही हूँ जो जिजीविषा में प्राण और निराशा में आशा का संचार कर रही है-

-तूफ़ानों से डर कैसा

चलना है बस चलना है। ( पेज19)

 

-छोटी सी

अंजुरी में हम

सारा आकाश भरें। ( पेज24)

 

-आएँ/

कितनी भी बाधाएँ/

हम मुस्काएँ । ( पेज 42)

 

-मुसीबत कभी जब हम पर पड़ी

 ज़िन्दगी सचमुच सरल हो गई।  ( पेज 59)

 

-जीवन के अँधेरों में/

बाधा बने घेरों में/

 सभी द्वारे दीपक/जलाए रखना।  ( पेज69)

 

-चुप रहती है फिर भी बहुत बोल जाती है/

बनी मन की अथाह गहराई है बूँद । ( पेज 78)

 

-हार नहीं मानती है चिड़िया ।( पेज 98)

और ऐसी ही अनेक रचनाएँ हैं जो   संघर्ष के इस काल में जीवन की जंग को जीतने की प्रेरणा दे रही हैं।

आदरणीय भाई साहब रामेश्वर काम्बोज जी का हार्दिक आभार है कि उनकी पुस्तक 'बनजारा मन' की रचनाओं ने मुझ जैसे साधारण पाठक में  आशा और प्रेरणा  जगाने का पुनीत कार्य किया है

-सादर-

---परमजीत कौर 'रीत'