पथ के साथी

Saturday, September 30, 2017

764

अब लौट आओ न माँ
सत्या शर्मा ' कीर्ति '




इस धरा - गगन के प्राण वायु
हो रहे क्षण- क्षण  कलुषित माँ
भर दो इसे स्नेह अमृत से
मुझमें ही बन ममता रू
लौट आओ न शिवानी माँ ।।

चारों ओर बिखरे महिषासुर
तार - तार करने अस्मत को
शुम्भ - निशुम्भ बढ़ते प्रतिपल
  मुझमें ही बन काल रू
लौट आओ न काली माँ ।।

अशिक्षा और अज्ञान का
है फैला यूँ साम्राज्य यहाँ
मिटा सकूँ जग की अविद्या
मुझमें ही बन विधा रूप
लौट आओ न शारदा माँ ।।

लोभ - लालच का दैत्य बड़ा
करता घोर अनाचार यहाँ
दरिद्रता अग्नि से धरा बचाने
मुझमें ही बन श्री लक्ष्मी रूप
लौट आओ न लक्ष्मी माँ ।।

पापियों का जुल्म बहुत
फैला है तेरे इस जगत में
दुष्टों के छल - बल को हरने
बन चंडी रूप  मुझमें ही
आ लौट आओ न दुर्गा माँ ।।

बच्चों का उद्धार करने
सृष्टि का विस्तार करने
भक्ति का संचार करने
अब लौट आओ न मेरी माँ

-0-

Friday, September 29, 2017

763

डॉ. कविता भट्ट
हे०न०ब०गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड    

1-किसको जलाया जाए 

जब सरस्वती दासी बन; लक्ष्मी का वंदन करती हो    
रावण के पदचिह्नों का नित अभिनन्दन करती हो  
सिन्धु-अराजक, भय-प्रीति दोनों ही निरर्थक हो जाएँ   
और व्यवस्था सीता- सी प्रतिपल लाचार सिहरती हो 
 
अब बोलो राम! कैसे आशा का सेतु बनाया जाए 
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए 

जब आँखें षड्यंत्र बुनें; किन्तु अधर मुस्काते हों 
भीतर विष-घट, किन्तु शब्द प्रेम-बूँद छलकाते हों 
अनाचार-अनुशंसा में नित पुष्पहार गुणगान करें  
हृदय ईर्ष्या से भरे हुए, कंठ मुक्त प्रशंसा गाते हों 

चित्र ; गूगल से साभार
क्या मात्र, रावण-दहन का झुनझुना बजाया जा  
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जा   

 विराट बाहर का रावण, भीतर का उससे भी भारी
असंख्य शीश हैं, पग-पग पर, बने हुए नित संहारी
सबके दुर्गुण बाँच रहे हम, स्वयं को नहीं खंगाला    
प्रतिदिन मन का वही प्रलाप, बुद्धि बनी भिखारी  

कोई रावण नाभि तो खोजो कोई तीर चलाया जा
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जा 
-0-

2-नुमाइश ( कविता)
  
सवेरे की ही खिली नन्ही कोंपलों पर
चित्र ; गूगल से साभार
गरजदार ओलों की तेज़ बारिश हुई

जो बुरकता रहा नमक, रिसते जख्मों पर
उसी के साथ नमक-हलाली की सिफारिश हुई

दुश्मन की तरह मिलता रहा जो हर शाम 
उसी के साथ रात गुजारने की साजिश हुई

चुप्पी को समझा ही नहीं कभी जो शख़्स
उसी के सामने दर्दे -दिल गाने की ख्वाहिश हुई

दिन-रात मरहम लगाता ही रहा उसके घावों पर
जिसके हंगामे से उसकी चोटों की नुमाइश हुई

-0-

762


ज्योत्स्ना प्रदीप
1-शैलपुत्री

शैलपुत्री के रूप में पूजित
वृषभ हुई सवार।
कमल विराजे ,पापनाशिनी  
सुन लो ना पुकार।।

अपमान पति का सह न पाईं 
किया  खुद का दाह।
शिव की प्रिया बनीं तुम फिर से
यही थी चिर चाह।।

पार्वती बनकर तुम आईं 
दुहिता शैलराज।
शिव को पाया जप- तप से माँ
करो पूर्ण काज।

माँ की महिमा बड़ी अनोखी
सागर-सा हिलोर।
माता की करूणा का लोगों 
कहीं ओर न छोर।
 -0-

2-ब्रह्मचारिणी


ब्रह्मचारिणी माँ का मिलकर
करें हम आह्वान।
जीवन में संयम आता माँ 
करें हम प्रणाम।।

सूखे पात खाकर शंकरी 
सुखाई थी देह।
तुमसे बुद्धि का  दान मिले हैं 
प्यारी देह -नेह।।

शिव की साध बनी थी माता
जगत -मूलाधार।
पल -पल को कर देती पावन
जगत- पालनहार।

वरद -हाथ हो सर पर शिविका 
जले तेरी ज्योत।
जगमग करती माता जग को 
फैलाती खद्योत।।
 -0-

3-चंद्रघंटा


चंद्रघंटा-साधना पूजन 
शरद ऋतु शृंगार।
नवरात्रि के तृतीय दिवस में
करती हो उद्धार।

अस्त्रों - शस्त्रों से हो विभूषित
दृगों  में अंगार।
असुरों की संहारक आद्या
भू का हरे भार।।

देवी माँ से हो साधक को 
अलौकिक अहसास।
हर दुख में होती बालक के
सदा माता पास।

माँ -उपासना से  साधक का
सधे चक्र मणिपूर।
हर पल मन में वास करे ये
माँ न होए दूर ।।

 -0-
4- कूष्मांडा 


हे माता तुम अब आ जाओ
तुम्हीं मेरी आस ।।
सूरज सा है तेज तुम्हारा
रवि लोक है वास।।

करती शेर सवारी माता
सुनें जयजयकार।।
जग से बैर हटे रे माई
सभी  में हो  प्यार।।

वर दे दो तेजोमय माता 
बनें सबके काम।
नौ निधियों को देनेंवाली
जन्मों-जन्मों प्रणाम । ।

कंज,कमंडल ,गदा ,धनुष ले
देती अमिय -धार।।
तम बंधन से तुम्हीं निकालो
वंदन बारम्बार।।
 -0-

5-स्कंदमाता 


वरमुद्रा में शुभ्र वर्ण वाली,
करें सभी प्रणाम।
स्कंदमाता शाम्भवी हो  तुम,
करती हो कल्याण।।

तेरी साधना -आराधना
भर  दे घर- भण्डार।
नैनों से करुणा  की बहती
तेरे दृगों- धार।।

अनगिन किरणें काया -निकसे,
चमक रहा  ललाट।
दीन- हीन हैं हम पापी हैं,
जगत - बंधन काट।।

माँ के मानस आओ लोगों ,
होते हैं तल्लीन ।
इस माया से विलग पड़ी थी,
बिन जल तृषित मीन।।
 -0-
6-माँ कात्यायनी  

माँ कात्यायनी कमलालया
करूँ तेरा जाप।
श्री अंगों की आभा प्यारी
दूर हो संताप ।।

महिषासुर-कलुषित तन- मनका
तुमने अंत किया।
क्रोध- शोक से  भटके थे जो
मन को संत किया।।

सब  शत्रु - नाशिनी हो माता
तुम्हें है नमस्कार ।
शुभ छवि जो हृदय में विराजे
भागे अहंकार।।

हेम -कलेवर लोहित साड़ी
हाथों में कटार।
पोर-पोर  से बहती आभा 
घनप्रिया की धार ।


 -0-
7-कालरात्रि 


हे  कालरात्रि काली  माता,
काल तेरा ग्रास।
काया काली पर दीपित है,
हृदय में मधुमास।।

क्रिया हीन हूँ ,तेरे वर से 
करें कर्म महान।
बुद्धिहीन, यश हीन हूँ माता
दे दो अमिय - दान ।।

विजयशालिनी ,मोक्षप्रदा  माँ 
तेरे अंशभूत।
शत्रु नाशकर परम गति पाते 
तेरे ही कपूत।।

रौद्रमुखी हो भद्रकाली माँ
कंठ माल -कपाल।
खुले केशों में विकट रातें 
जीभ लोहित ,लाल।।

रौद्री, घुमोरना ,कपालिनी 
करे जयजयकार।
वरद करों को सर पर रख दो,
 दया अपरंपार।।
 -0-

 8-महागौरी 



हे शिवप्रिया कल्याण शोभना
परमपद का भार।
सब शत्रु नाशिनी पापों का
करें माँ संहार।।

तेरे पूजन से माता हम 
रहें सब नीरोग।
तुम ही देती पल में माता 
इस जगत के भोग।।

कैलाश रहती महागौरी 
वर-मुख  है गम्भीर।
इस जग के  हर प्राणी की माँ
तुम्हीं जानों पीर।।।

गौरवर्ण में रजत देह ये
विधु करे शृंगार।
हर पोर सुगंध निकलती  है 
पावन है  अपार।।


माँ गौरी की शुभ छवि से ही
श्रद्धा का संचार।।
माँ शुभ्र ओजस कर देती हैं 
सभी मलिन विचार।।
 -0-

9-सिद्धिदात्री 
  
जो मीठा फ़ल दे देती हो 
सिद्धिदात्री कहाय ।
साधक तप को करते-करते
दया इनकी पाय।।

चार भुजाओं वाली माता
शिव भी करें साध ।
अपनें बालक से ये माता
करें प्रेम अगाध ।।

शंख ,चक्र ,गदा कर में ले कर
कमल विराजमान।
ऐसी मोहक छवि का मन में
करते सभी ध्यान।।

ओज तुम्हारा बड़ा निराला
मिटा विषय -विकार।
ऐसी मोहक छवि को मनवा
पूजें बारम्बार।।

-0-

Wednesday, September 27, 2017

761

1- मैं रचूँगा-
प्रियंका गुप्ता

मैं रचूँगा
तुम्हारे नाम पर एक कविता
उकेरूँगा अपने मन के भाव
कह दूँगा सब अनकहा
और फिर
बिना नाम की उस कविता को
कर दूँगा
तुम्हारे नाम
क्योंकि
मैं रहूँ न रहूँ
कविता हमेशा रहेगी
तुम्हारे नाम के साथ...।

-0-
2-कुछ अलग से लोग
-प्रियंका गुप्ता

कुछ अलग से लोग
मिल जाते हैं यूँ ही
राह चलते
न तुम्हारे शहर के
न ही अपने से किसी गाँव के
फिर भी
मिलते हैं वो अक्सर
बेसबब, बेमतलब...
दूर होकर भी
चले आते हैं ख्वाबों में
ख्यालों में;
तुम्हारे माथे पर उनकी याद का बोसा
मानो
चुपके से कोई
नींद में आकर रख गया हो
दुआ का कोई फूल
तुम्हारे सिरहाने,
और जाते-जाते
कानों में कह गया हो-
खुश रहना सदा
क्योंकि
तुम मुस्कराते हुए बहुत अच्छे लगते हो
सच्ची...।
  -0-
                                                   
एम.आई.जी-292, कैलाश विहार,
आवास विकास योजना संख्या-एक,
कल्याणपुर, कानपुर-208017(उ.प्र)
ईमेल: priyanka.gupta.knpr@gmail.com

-0-
3-जिंदगी........
परमजीत कौर 'रीत'


गीत शीरीं गा रही है ज़िन्दगी
ख़ुद को यूँ बहला रही है ज़िन्दगी

क्या ,समझ में आ रही है ज़िन्दगी?
रंग बदले जा रही है ज़िन्दगी

वक़्त से बढ़कर सिकंदर  कोई अब
रू-ब-रू दिखला रही है ज़िन्दगी

जिन खिलौनों से ये खेले,उनसे ही
तालियाँ बजवा रही है ज़िन्दगी

हौंसले हैं रेज़ा-रेज़ा उड़ने को
फिर भी पर फैला रही है ज़िन्दगी

तीरगी अपना ठिकाना दे बदल 
शम्मे-दिल सुलगा रही है ज़िन्दगी

'रीत' बस मासूमियत रखना बचा
चाह धोखे, खा रही है ज़िन्दगी

4- गुज़री  है-
 परमजीत कौर 'रीत'


जीस्त यूँ इम्तिहाँ से  गुज़री  है
एक चिड़िया  तूफां से  गुज़री  है

बेख्याली में आह निकली जो
क्या बता,कहाँ से  गुज़री  है

बात को इक खबर बना देगी
ये हवा जो यहाँ से  गुज़री  है

ख्वाहिशों की पतंग याअल्लाह!
जब उड़ी कहकशां से  गुज़री  है

दो किनारों के बीच राख़ बची
बर्क यूँ दरमियाँ से  गुज़री  है

छोड़ जाती है कुछ निशां अपने
ये कज़ा ,जब जहाँ से  गुज़री  है

'रीत' परछाइयों को ले काँधे
याद हर ,दिल मकाँ से  गुज़री  है

-0-