शशि पाधा
धूप गुनगुनी छाई है,
लगता जैसे दूर देस से
माँ मुझे
मिलने आई है ।
भोर किरण ने चूम के पलकें
सुबह सुबह जगाया था
धीमे धीमे खोल के खिड़की
रंग स्वर्णिम बिखरया था
शीतल मंद पवन छुए जो
आँचल क्या वह तेरा है?
नीले अम्बर में बदली- सा
तेरे
स्नेह का घेरा है ?
अंग अंग को सिहरन देने
आई जो पुरवाई है
लगता जैसे दूर देश से
माँ ही मिलने आई है ।
भरी दोपहरी में अम्बर से
बिन बदली ही मेह झरा
खाली सी थी मन की गगरी
किसने आकर नेह भरा?
आँगन में तुलसी का बिरवा
धीमे धीमे डोल रहा
सौगातों से भरी पिटारी
धीरे से कोई खोल रहा |
अम्बुआ की डाली के नीचे
बैठी जो परछाई है
लगता जैसे दूर देश से
माँ ही मिलने आई है ।
देख न पाती माँ मैं तुमको
फिर भी तुम तो यहीं कहीं
आँगन में या बगिया में हो
कलियों में तुम छिपी कहीं|
एक बार भी मिल जाती तो
जी भर तुमसे मिल लूँ माँ
नयनों में भर सूरत तेरी
पलकों को मैं मूँद लूँ माँ
जानूँ तू तो यही कहेगी
माँ भी कभी परायी है ?
फिर क्यों लगता बरसों बाद
तू मुझसे मिलने आई है?
फिर क्यों लगता बरसों बाद -------