पथ के साथी

Sunday, September 1, 2013

दो अनुभूतियाँ

  

1-तुम कभी तो आ जाते
डॉ0 कविता भट्ट

तुम कभी तो आ जाते
तुम कभी तो आ जाते,
प्रस्तर खंडों पर चलते हुए।
इतनी रेलें चलती हैं भारत में,
गिरते कभी सँभलते हुए।
अब हैं, आहटों की प्रतीक्षा करते,
श्वासों के स्वर लते हुए।
चुपचाप हँसी विदा हो गयी,
अन्तर्द्वन्द्वों में मचलते हुए।
कुछ झुर्रियों से था संघर्ष,
चुनौतियों के स्वर बदलते हुए।
झकझोर रही, निर्लज्जता से,
बूँदें नयनों से निकलते हुए।
इन्हीं सिकुड़ी आँखों को भिगोकर,
रातें बुढ़ापे ने बितायी करवट बदलते हुए।
तुम क्या जानों मेरी व्याकुलता,
अभी तो जवानी आई है, आँखें मलते हुए।
अब भोर, फिर दोपहर,
फिर जर्जरता आएगी उछलते हुए।
तुम्हारे पाले हुए शिशु युवा होंगें,
और तुम नरकंकाल समान जीर्ण झूलते हुए।
तब तुम्हें अनुभव हमारी पीड़ा होगी,
जब तुम भी होगे चिता पर जलते हुए। 
ठेके का टेंडर
मदमस्त हो रही हैं धीरेधीरे पहाडि़याँ,
जीवन को विदा कह रही हैं जवानियाँ।
कल ही तोड़े थे शीशे ठेके के उसकी माँ ने,
नारे लगाये, लगवाया बाहर से ताला, बुआ ने ।
अब भी नहीं कर पाया वह मनन,
किसने की विशिली यहाँ की पवन?
चार किताबें हाथों में लिये कॉपी और एक पेन,
भेजा था बेटे को स्कूल और पढाई थी ट्यूशन।
कुशासन ने उसको रोटी नहीं कई बरस दी,
कड़वे घूँट, कई बोतलें व्हिस्की की परस दी।
अबके रोया था वह माँ की गोदी में बिलखकर,
क्या उसमें खूबी नहीं रोटी खाने की कमाकर?
आज सोया है चिरनिद्रा में थककर,
न उठेगा न माँगेगा रोटी कभी फिर।
बैठी मन में जो ठेका बन्द करना, ठानकर
चकित थी माँ उसकी आज यह जानकर,
जिस सखी ने उठाया था ठेके पर पत्थर,
उसी के नाम खुला है अबके ठेके का टेंडर।
 -0-
2-मेरी अनुभूति-सुशीला शिवराण

मँहगाई से बुझता
ज़िंदगी से जूझता
थकान से हलकान
मुँह पे पलास्टिक मुस्कान
परेशां हर इंसान
टोहता है थोड़ी-सी हँसी
पल-भर की थोड़ी-सी ख़ुशी ।

बोले फ़िसद्दी लाल -
आ ज़िंदगी तुझको हँसाएँ
मुश्
किल ज़रूर है
एक सच्
ची कोशिश कर दिखलाएँ
चल, कुछ हास्य कविताएँ सुनवाएँ !

फ़िसद्
दी ने कहा उदासी से -
अब तो छोड़ मेरा पल्ला
हास्य का हो रहा है हल्ला ।

उदासी के चेहरे पर खिल उठी मुस्कान
बोली -
तू बड़ा है नादान !
फ़िसद्
दी बोला क्या है तेरा मतलब ?
उदासी ने कहा- तू नहीं समझेगा अहमक ।
फ़िसद्
दी ने की बड़ी मनुहार
चल; बता भी दे यार !
क्यों कहती तू मुझको मूरख
चार-चार डिग्रियों वाला हूँ
देखती नहीं अफ़सर आला हूँ ।

उदासी फिर खिलखिलाई
फ़िसद्
दी की कुछ और खिल्ली उड़ाई !

अब तो चढ़ गया उसका ताप
उदासी बोली
माफ़ करो बाप
पहले हास्य-सम्मेलन हो आओ
संभव है अपने उत्तर पा जाओ

भिनभिनाता फ़िसद्
दी पहुँचा कवि-दरबार
श्रोता दिखे केवल चार
मंच पर सज्जित राज-दरबार
कोई सँभाल रहा मुकुट-तलवार
किसी की तोंद गिर रही बारंबार
लगा
वह रास्ता भटक गया है
कवि-सम्मेलन नहीं नौटंकी पहुँच गया है
फिर से पढ़ा बैनर आँखें मलते-मलते
चश्
मे को तनिक और ऊँची नाक पर रखते
अक्षर भी लगे उसे चिढ़ाने -
काहे को फ़िरंगी भेस बनाया है
कभी टाई, रेबैन ने हिन्दी पढ़ना सिखाया है ?

अक्षरों की इतनी हिमाकत ?
साहब की सरेआम फ़जीहत
फ़िसद्
दी के उखड़ते देख तेवर
सरपट दौड़े आए वॉलिन्टियर
भाँप के तुरंत सारी बात
आसन दिया उन्हें भी खास
भरपूर निपोरी खींसे
आँखों को मीचे-मीचे ।

फ़िसद्
दी ने
सर झटक लगाया कविता में ध्यान
कई सवालों ने किया उन्हें परेशान
हास्य-रस में क्यों तलवार चली आई
दहशत का यहाँ क्या काम है भाई ?
असली साथ क्यों नकली पेट
क्यों चढ़ी कविता नौटंकी की भेंट
क्यों कवि आज भाँड होने लगे हैं
पतियों को क्यों साँड कहने लगे हैं ?

ताड़क
फ़िसद्दी की सवालिया निगाह
ऑर्गनाईज़र ने दिखाई बाहर की राह

फ़िसद्
दी भौंचक्के; कैसे ये कविगण
भगा रहे आप ही श्रोतागण
उनकी मति ने दे दिया जवाब
तभी आई कहीं से एक आवाज़
इतना भी मत चौंकिए जनाब
ये कॉम्पीटीशन है समझे नहीं आप
चेस्ट नंबर की आँख में धूल झोंकने के हैं उपाय
ज़रा ख़्याल रखिएगा; निर्णायक को कैसे बताएँ
किसी तरह पहुँच जाए उन तक संदेसा
फिर कैसी कविता, नियम और कायदा
हास्य-रस का हो चाहे ख़ून, तलवार जीतनी चाहिए
कविता चाहे बन जाए मज़ाक, तोंद जीतनी चाहिए।

ओह ! तो यह मामला है
जुगाड़, फ़िक्सिंग, गड़बड़झाला है।
लोभ ने; कविता को भी भ्रष्ष्ट
 कर डाला है
क्या सच के लिए कहीं बचा कोई आला है ?

रो दिया मन; आँखें नम
चले थे हँसने; बढ़ गया ग़म
सहसा उदासी आ खड़ी हुई सामने
लगी प्रेम से उन्हें समझाने -
भैया ! खुश रहने के दो ही हैं रास्ते
या तो भ्रष्ष्टा
चार में आकंठ डूब जाओ
या जनक की तरह, देह से विदेह हो जाओ

इतना कह उदासी उनमें समा गई
नहीं जानती कितना उन्हें सहमा गई
वे उदासी की बातें गुनने लगे हैं
फ़िसद्
दी कुछ-कुछ योगी होने लगे हैं
फ़िसद्
दी कुछ-कुछ योगी होने लगे हैं ।
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