दोहे
ज्योत्स्ना प्रदीप
1
हिमनद के तन सूखते, विलय हुई है देह।
टूट रहे हैं रात-दिन, नदियों के भी नेह ।।
2
तलहटियाँ अब बाँझ-सी, पैदा नहीं प्रपात।
दंश गर्भ में दे गया, कोई रातों रात।।
3
लुटी, पिटी
नदियाँ कई, सिसक रहे हैं ताल।
सागर में
मोती नहीं,ओझल हुए मराल।।
4
बादल से निकली अभी, बूँद बड़ी नवजात।
जिस मौसम में साँस ली, अंतिम वो बरसात।
5
नभ ने सोचा एक दिन, भू पर होता काश ।
नदियाँ बँटती देखकर, सहम गया आकाश ।
6
मनमौजी लहरें हुईं ,भागी कितनी दूर।
सागर आया रोष में ,मगर बड़ा मजबूर ।।
7
देह हिना
की है हरी, मगर
हिया है लाल।
सपन सजाये ग़ैर के,अपना माँगे काल।।
8
पेड़ हितैषी
हैं बड़े, करते तुझको प्यार ।
चला रहा है रात- दिन, इन पर तू औज़ार ।।
9
जुगनूँ, तितली ,भौंर भी , सुख देते भरपूर ।
जाने किस
सुनसान में, कुदरत के वो नूर।।
10
झरनें
गाते थे कभी, हरियाली के गीत ।
मानव ने गूँगा किया,तोड़ी उसकी प्रीत ।।
11
जबसे मात चली गई, मन- देहरी बरसात ।
दो आँखें पल में बनीं, जैसे भरी परात ।।
12
क़ुदरत
खुद रौशन हुई, बनकर माँ का रूप।
जीवन जब भी
पौष -सा, माँ ही कोमल धूप ।।
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