पथ के साथी

Thursday, February 16, 2023

1289-दो कविताएँ

 राधा गर्दे (कोल्हापूर)



 1-बावरा मन

 

बावरा मन क्यों पुनः चंचल हुआ है

पंछी बनकर  गगन में उने लगा है।।

 

पवन बन पत्तों को धीरे चूमते ही

टहनियों पर झूलकर मुसका रहा है

तितली-सा पंखुडियों को थोड़ा  हँसाकर

भ्रमर-सा सुमनों पे ये मँडरा रहा है

कौन जाने आज इसको क्या हुआ है

पंछी बनकर गगन में उने लगा है..

 

झील की मद्धम तरंगो से निकलकर

पर्वतों से ये वहां बतिया रहा है

बादलों की रस फुहारों- संग देखो

बरसकर आनंद में ये गा रहा है

आज ये मदिरा पिये-सा क्यों हुआ है

पंछी बनकर गगन में उने लगा है..

 

सामने आते पिया को देखकर क्यों

अंजुली से मूँद ये आँखें रहा है

पैर हैं ये दौने को आतुर, मगर क्यों

लाजसे  उनको ये रोके जा रहा है

क्या पता ये रोग इसको क्या हुआ है

पंछी बनकर गगन में उने लगा है..

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2- स्वप्न

 

सारी राते  तो बीत गईं  पर सपने पूरे हुए नहीं

लो चाँद साथ ये छो चला पर मन की आशा गई नहीं

एक नई सुबह फिर आगी, फिर साँझ समय भी आएगा

पर राह निहारूँ जिसकी मैं वो स्वर्ण काल कब आएगा?

 

ना कोई भूखा सोगा, ना कोई जूठा छोड़ेगा

जब हाथ बढाकर हर कोई,हर मन का नाता जोड़ेगा

ना कोई जाति पूछेगा, बस मानवता की आन रहे

मैं मानव हूँ बस  मानव का ही  सबके मन में मान रहे

 

हम करें कार्य कोई भी लेकिन दूजा ना अपमानित हो

समझें इतना कि  देह अलग पर एक हमारे शोणित हों

रूरतसे ज्यादा संचय कर हम भार बनें क्यों भूमि पर

मिल-बाँट अगर हम साथ रहे तो जन्म सार्थ हो अवनी पर

 

यह देश नहीं, सारी वसुधा बस मेरी है, यह समझेंगे

और गले लगाकर हम सबको अपनी  बाहों में लेंगे

यह स्वप्न भले ही आज अभी तक पूरा मेरा हुआ नहीं

पर सच बोलूँ तो इस सपने का छोर हाथ से गया नहीं