(रचना-तिथि-15-8-1997)
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
आज़ादी की पूर्व सन्ध्या पर
गांधी जी एक अधिकारी से टकराए
'देखकर नहीं चलता बूढ़े' अधिकारी गुर्राए
गांधी जी बोले-'तुम अधिकारी हो?
कानून पढ़ा है ?'
'हाँ कानून पढ़ा है;
इसीलिए कानून को
जेब में लेकर चलता हूँ
कभी कानून को
जूते की जगह पहनता हूँ
कभी खैनी की तरह मलता हूँ
फिर डण्डे की चोट से फटकता हूँ
जो कुछ बचता है,
उसे जबड़े में दबाता हूँ
चारा खाने वाले जानवर की तरह चबाता हूँ
कानून मेरे लिए कर्त्तव्य नहीं, धन्धा है
अनजान के लिए कानून
फाँसी का फन्दा है
अँधेरी रात है
मुझ जैसों के लिए जनता की
यही सौगात है
कानून से जनता को हाँकता हूँ
लोकतन्त्र के माथे पर
इसी तरह व्यवस्था टाँकता हूँ
फिर गांधी जी आगे बढ़े
एक नेता दिखाई पड़े—
गांधी जी को देखकर चकराए-
'बापू , आप पचास साल पहले भी
15 अगस्त को दिल्ली में नहीं आए'
गांधी जी बोले-'यही जानना चाहता हूँ
कि इतने दिनों में तुमने
क्या-क्या गुल खिलाए हैं,
अब तक देश को तुम लोगों ने
देश को कितना चरा है
तुम्हारे हाथों लोकतन्त्र
कितना जिन्दा है, कितना मरा है।'
नेता जी बोले-'बापू जी !
हम विधान सभाओं में
जूते चलवाते हैं, गाली बरसाते हैं
माइक तोड़ते हैं, सिर फोड़ते हैं
इस प्रकार विधान सभा तक को अच्छा खासा
जंगल बनाते है
और संसद तक में, दंगल कराते हैं
इस प्रकार जनता को लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति का
सन्देश देते हैं
जब ऊब जाते हैं , घोटाले करते हैं
यूरिया चबाते हैं , चारा चरते हैं
नोट नालियों में भरते हैं
बिस्तरे पर बिछवाते हैं
हमें याद है
आपने मरते समय 'राम!' कहा था
हमने उसमे 'आ' जोड़ लिया है
अब हम आराम से रहते हैं
कभी-कभी आपके उस राम में ही
सुख तलाशते हैं
इसलिए कुछ लोग हमें सुखराम भी कहते हैं।
गांधी जी आगे बढ़े
तो धर्माधिकरी दिखाई पड़े
राम-राम के साथ अधिकारी से पूछा-
'महाराज आपका क्या हाल है
वे बोले-'मज़े में हूँ'
जनता भेड़ें हैं
हम इन्हें चराते हैं
जहाँ चाहे वहाँ ले जाते हैं
हमारे लिए सब देव स्थान बराबर है
जब चाहे उन्हें तोड़ते हैं
शहरों में गाँवों में
दंगे करवाते हैं
इसमें बूढ़े,बच्चे, जवान,औरतें
सभी मरते हैं
इस तरह हम धर्म का प्रचार करते हैं
तन्त्र -मन्त्र-षड्यन्त्र से हम धर्म चलाते हैं
मौका पाकर तिहाड़ भी हो आते हैं
कुछ दुष्ट जन हमें वहाँ मच्छरों से कटवाते हैं
हम इनका भी हिसाब रखते हैं
जब बाहर आएँगे, इससे भी बेहतर
समाज के लिए कर दिखाएँगे
अन्त में मिला एक आम आदमी
गांधी जी ने पूछा-
'आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ मना रहे हो/'
वह बोला-'हाँ , बापू
अपने फटे कुर्ते में पचासवीं गाँठ
लगा रहा हूँ
इस तरह अपने नंगे बदन को
छुपा रहा हूँ,
मैंने जो सपने देखे थे
उन्हीं के सहारे जी रहा हूँ
हर वर्ष
अपने सपनों की चादर को सी रहा हूँ
नेताओं के आश्वासन का भूसा
मेरे जैसे सभी लोग खा रहे हैं
एक हम ही हैं , जो आश्वासनों के सहारे
इस देश को चला रहे हैं
किसी तरह बचा रहे है ।'
गाधी जी आगे बढ़े
एक कवि उनके हत्थे चढ़े
पूछा-'तुमने देश को क्या दिया?'
कवि ने कहा-'जब समय आता है
जनता को कविता सुनाता हूँ
शब्दों के खिलवाड़ से
मन बहलाता हूँ
मंच पर शेर की तरह दहाड़ता हूँ;
लेकिन दैनिक जीवन में
व्यवस्था के पीछे-पीछे
दुम हिलाता हूँ
ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ता हूँ
जब कभी बहुत सोचता हूँ
बेबसी में अपने ही बाल नोचता हूँ
पीकर मंच पर जाता हूँ,
तो देश की व्यवस्था की तरह
लड़खड़ाता हूँ
मुझे इस बात का पूरा अहसास है
कि मैं देश की दुर्गति के लिए
जिम्मेदार हूँ
क़ुसूरवार हूँ।
जब -जब कवि की कथनी
और करनी में अन्तर आएगा
देश निश्चित रसातल में जाएगा
बापू ! आज मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ
बची-खुची शर्म के कारण अब तक जिन्दा हूँ
मैं मानता हूँ-
कि कवि जब-जब सोता है,
तो देश अपनी शक्ति खोता है
मैं कसम खाता हूँ
अपने शब्दों से
प्रचण्ड अग्नि जलाऊँगा
रौशनी फैलाऊँगा
इस सोते हुए देश को ज़रूर जगाऊँगा
मरने का मौका आया तो
पैर पीछे न हटेगा
देश की रक्षा में
सबसे पहले मेरा ही शीश कटेगा।
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